आज हमें यह कहने में बड़ा गर्व महसूस होता है कि भारत अब विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर हो चुका है, आने वाले समय में भारत को विकसित देशों की श्रेणी में गिना जाएगा। किसी देश का विकास सिर्फ विज्ञान एवं तकनीकि से हुए चमत्कारी बदलाव से नहीं आंका जा सकता और न ही लोगों को भौतिकवादी एवं भोगवादी बनाना विकास की प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए।
हम भारतीय अपने आप को इतना ऊंचा मान बैठे हैं कि हम यह मानने को तैयार ही नहीं कि हम भोगी हैं। हम तो अपने प्राचीन इतिहास की स्वर्णिम स्मृतियों को याद कर और उसका वर्णन कर फूले नहीं समाते। ऐसा जान पड़ता है कि भारतीय इतिहास के वे महान व्यक्तित्व हम ही हैं। निस्संदेह हमें अपने देश के स्वर्णिम इतिहास को याद करना चाहिए और महान व्यक्तित्वों को खुद के भीतर जीवंत करना चाहिए। लेकिन हम ऐसा क्यों करेंगे, आखिर ऊंचाई पर चढ़ने के लिए जोरों की ताकत जो लगती है! तो फिर प्रश्न उठता है कि क्या हममें ताकत नहीं है हम कमजोर लोग है? जी हां, हम अध्यात्मिक रूप से कमजोर लोग हैं।
यह दुखद है कि जो भारत कभी विश्व गुरू कहलाता था, जो पूरे विश्व भर में अध्यात्म का केंद्र माना जाता था ,वो भारत आज अध्यात्म से कोसों दूर है। आज हम अध्यात्म के नाम पर तमाम कर्मकांड करते हैं जिसका मन की शुद्धि से कोई लेना-देना नहीं है। हम इसी कथित अध्यात्मिक परिवेश में पले-बड़े होते हैं और प्रौढ़ होने पर काफी हद तक इसी आधार पर हम खुद को अध्यात्मिक मानते हैं। यह प्रक्रिया बिल्कुल वैसी ही है कि जैसे कोई व्यक्ति अपने आप को अपनी डिग्रियों के आधार पर शिक्षित मानता हो लेकिन वह शिक्षा के वास्तविक मर्म को समझ ही नहीं पाया हो। वैसे अगर मैं कहूं कि शिक्षा और अध्यात्म का आपस में गहरा संबंध है तो आप इस बात से किस हद तक सहमत हो पाएंगें? शायद कुछ हद तक!
आध्यात्मिकता और शिक्षा: एक गहरा संबंध
विवेकानंद ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति में अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ही शिक्षा है। वास्तव में अध्यात्म का भी यही उद्देश्य होता है कि व्यक्ति अपनी अपूर्णता को चेतना की उत्कृष्ठता से पूरी कर सके। कुछ लोग शिक्षा का उद्देश्य नौकरी लगने या उसके माध्यम से धनार्जन को मानते हैं। हां, शिक्षा से आपको ऊंचा पद, मान सम्मान तथा धन-दौलत आदि भौतिक चीजें मिल सकती हैं लेकिन उसका उद्देश्य मात्र भौतिक सुख देने से नहीं है। शिक्षा तभी सार्थक है जब वह आपको भोग से पार जाना भी सिखा दे।
भारत में भोगवाद की बढ़ती प्रवृत्ति और समाज की दशा
जिस तरीके से भारत देश में भोगवाद बढ़ रहा है, वह चिंताजनक है। इसका ज्वलंत उदाहरण भारत में बढ़ता बलात्कार दर भी है। अभी हाल ही में कोलकाता में घटी बलात्कार की घटना हम सभी को गहरे अवसाद में डाल रही है। इस घटना का विवरणसुनकर रूह कांप जाती है। यह विचारणीय है कि जो देश स्त्री सम्मान और समानता की बात करता है, आज उसकी धरती पर महिलाएं असुरक्षित महसूस कर रही हैं। हमारे देश की ढीली-ढाली कानून व्यवस्था बलात्कारी को ठोस दंड न देकर बलात्कार की घटनाओं को हवा देने का काम कर रही है। क्योंकि अपराधी को पता है कि उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है इसलिए वह निश्चिंत होकर इन घटनाओं को अंजाम देता है।
महिलाओं की स्थिति और समाज का दोहरा चरित्र
किसी समाज के प्रभावशाली विकास के लिए महिलाओं के सशक्तीकरण जैसा कोई साधन नहीं है। भारत में महिलाओं की होती दुर्दशा के बाद भी हम पता नहीं कैसे विकसित भारत की कल्पना कर सकते हैं।ये बलात्कारी कहीं अलग से नहीं पैदा होते हैं। ये भी हमारे समाज का हिस्सा होते हैं। लेकिन जब कोई ऐसी घटना सामने आ जाती है तो लोगों को ऐसा लगता है कि ये कोई अलग ही प्राणी है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि इन बलात्कारियों का निर्माण समाज ही करता है। बड़े दुख और शर्मिंदगी के साथ कहना पड़ रहा है कि कभी ‘विश्वगुरू’ कहलाने वाले‘भारत’ में महिलाओं की दुर्दशा का जिम्मेदार भारतीय शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था तथा आस-पास का वातावरण है।
अगर देखा जाए तो आज भी भारतीय समाज में महिलाओं को हीन दृष्टि से देखा जाता है। मैरिटल रेप अक्सर चर्चाओं में आने लगा है क्योंकि बहुत सारी महिलाएं खुल कर इस पर बात करने लगी हैं। लेकिन हमारे देश में ऐसे तमाम उच्च पदासीन कथित शिक्षित लोग हैं जिनका मानना है कि शादी होने के बाद तो पुरुष का स्त्री पर पूर्ण अधिकार हो जाता है तो वो उसके साथ कुछ भी करे। भारत में पुरुष समाज का एक ऐसा भी हिस्सा है जो स्त्री को अपनी अंधी कामवासना का शिकार बनाने की ताक में लगा रहता है। वास्तव में वो एक महिला को भोग सामग्री मानता है इसीलिए वह महिलाओं के साथ स्वस्थ संबंध नहीं बना पाता है।
आज भी हमारा शिक्षित समाज महिलाओं को बच्चा पैदा करने की मशीन समझता है। यह बहुत हास्यास्पद लगता है जब हमारा भारतीय समाज स्त्री को मां बनने के बाद पूर्ण मान लेता है। प्रसव की पीड़ा सहने से कोई स्त्री पूर्ण नहीं हो जाती है। ध्यान रहे कि जिसे हम स्त्री बोलते हैं वह स्त्री होने से पहले एक मनुष्य है, उसका एक स्वतंत्र अस्तित्व भी है तथा वह भी शून्य से अनंत तक का सफर तय करने के लिए पैदा हुई है।
समाज में बदलाव की जरूरत
यह विचारणीय है कि आखिर कब तक भारतीय महिलाओं के सिर पर बलात्कार की तलवार लटकती रहेगी? इस अमानवीय अपराध को समाप्त करने के लिए हमारी सरकार, समाज, शिक्षा व्यवस्था, और न्याय प्रणाली कब अपनी सक्रिय भूमिका निभाएगी?
भारत, जो कभी ‘विश्व गुरु’ कहलाता था, आज आध्यात्मिकता से कोसों दूर होता जा रहा है। अध्यात्म, जो कभी इस देश की पहचान थी, आज केवल कर्मकांडों में सिमटकर रह गया है। इस कथित आध्यात्मिक परिवेश में पले-बढ़े लोग अपने आप को अध्यात्मिक मानने लगे हैं, जबकि वे इसके वास्तविक अर्थ से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि आज भारत सामाजिक और नैतिक पतन के कगार पर खड़ा है।
समाज को महिलाओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा और उन्हें एक स्वतंत्र, समान और सम्मानित व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार करना होगा। जब तक समाज का यह दोहरा चरित्र समाप्त नहीं होता, तब तक भारत का वास्तविक विकास संभव नहीं है। हमें अपने प्राचीन अध्यात्मिक आदर्शों को पुनर्जीवित करते हुए उन्हें अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है, ताकि भारत एक बार फिर ‘विश्व गुरु’ के रूप में स्थापित हो सके।