जब तिजोरी में रखी जाती थी चीनी, जानें गन्ने का पूरा इतिहास

क्या आप जानते हैं कि चीनी दुनिया की सबसे पुरानी डॉक्यूमेंटेड कमोडिटीज में से एक है? एक समय में, यह इतनी बेशकीमती थी कि लोग इसे तिजोरी में बंद करके रखते थे। शक्कर उस समय इतनी महंगी बिका करती थी कि लोग इसे लक्ज़री मानते थे। महारानी एलिजाबेथ अपनी मेज पर एक चीनी का कटोरा रखती थीं और रोज खाने में चीनी का इस्तेमाल करती थीं ताकि वो ये दिखा सकें कि वो कितनी धनवान हैं।

इस तरह शुरू हुई कहानी

इसकी पूरी कहानी करीब 10,000 साल पहले गन्ने से शुरू होती है। गन्ना एक एक ऐसी फसल है 10-12 फीट ऊंची होती है। यह बारहमासी फसल होती है जिसका मतलब है कि इसे हर साल दोहराने की ज़रूरत नहीं है। जब कटाई की जाती है, तो गन्ने को जड़ से ठीक ऊपर तक काटा जाता है, ताकि इसकी जड़ से नए अंकुर निकल सकें, जो 10-12 महीनों में फिर से कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं। दुनिया में चीनी उत्पादन में भारत नंबर 2 पर आता है। गन्ना राष्ट्रीय खजाने में महत्वपूर्ण योगदान देने के अलावा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दस लाख से अधिक लोगों को रोजगार भी देता है।

गन्ने का इतिहास

ऐसा कहते हैं कि इसके मीठे स्वाद के लिए गन्ने को चबाना शायद प्रागितिहास में शुरू किया गया था। गन्ने की कहानी को 8,000 ईसा पूर्व पुराना माना जाता है। 

गन्ने की उत्पत्ति न्यू गिनी में हुई थी जहां यह हजारों वर्षों से उगाया जाता था। ऐसा माना जाता है कि लोगों के साथ धीरे-धीरे गन्ने के पौधे एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गए। यहां यह कुछ लोगों ने जंगली गन्ने के साथ इसको क्रॉस-ब्रीड किया और हमें वो गन्ना मिला जिसे आज हम व्यावसायिक गन्ने के रूप में जानते हैं। 

वैदिक काल में पहुंचा भारत

भारत में गन्ने की खेती वैदिक काल की है। गन्ने की खेती का सबसे पहला उल्लेख भारत में 1400 से 1000 ईसा पूर्व के भारतीय लेखन में मिलता है। अब इस बात को भी मान लिया गया है कि भारत इसकी सैकेरम प्रजाति का मूल घर है और न्यू गिनी पोलिनेशियन समूह, S. officinarum की उत्पत्ति का केंद्र है। 

पहले लोगों को गन्ने का इस्तेमाल नहीं पता था लेकिन धीरे-धीरे लोग इसके स्वाद के कायल होने लगे। खेती में प्रगति के साथ यह वैश्विक फसल बन गई। गन्ना मूल रूप से चबाने के उद्देश्य से, दक्षिणपूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में उगाया जाने लगा। लोग इसका छिलका हटाकर अंदर के हिस्से को चूसना या चबाना सीख गए थे। 

और फिर बनी चीनी

15वीं शताब्दी में गन्ने को अमेरिका में लाया गया था, पुर्तगाली व्यापारियों के माध्यम से ब्राजील में ये सबसे पहले पहुंचा। नई दुनिया में लगाए गए पहले गन्ने को कैनरी द्वीप के गवर्नर ने क्रिस्टोफर कोलंबस को एक उपहार के रूप में दिया था। 640 CE तक चीन ने भारत से प्राप्त तकनीक का उपयोग करके गन्ने की खेती की तकनीक विकसित कर ली थी। 1096 – 1099 के बीच, क्रूसेडर चीनी के साथ यूरोप लौटे, जिसे उन्होंने मीठा नमक कहा। शुरू में गन्ने को कुचल कर उससे रस निकाला जाता था और फिर उस रस को उबाल कर उसकी अशुद्धियां निकल कर उससे शक्कर बनती थी। 1390 के आसपास, अडवांस्ड शुगर प्रेस डेवलप किए गए थे, जो गन्ने से मिलने वाले रस की मात्रा को दोगुना कर सकते थे। 1455 – 1480 के बीच मदीरा में पहली बार बड़े पैमाने पर चीनी रिफाइन की गई थी।

पेचीदा था तरीका

उस वक्त ईंट या पत्थर के चौकोर बक्से की तरह भट्ठियां बनाई जाती थीं, जिनमें नीचे की तरफ थोड़ी सी खुली जगह होती थी जहां से राख निकाली जाती थी। हर भट्ठी के ऊपर की तरफ तांबे की सात केतली या ब्वॉयलर लगे होते थे। हर केतली पहले वाले से छोटी और ज़्यादा गर्म होती थी। गन्ने का रस सबसे बड़ी केतली में होता था, जो गर्म होता रहता था, इसमें नींबू मिलाकर इसकी अशुद्धियां दूर की जाती थीं। यहीं पर रस में ऊपर जो झाग बनता था उसे हटाया जाता था और फिर ऊपर वाली केतलियों में भेजा जाता था। आखिरी केतली में पहुंचते हुए गन्ने का रस एक सिरप में बदल जाता था। इसके बाद इसे ठंडा करने की प्रक्रिया होती थी और इसी प्रक्रिया में सिरप ठंडा होकर गुड़ के टुकड़ों में बदल जाता था। इसके बाद लकड़ी के बैरल जिन्हें होगशेड्स कहा जाता था, में इसे इकट्ठा करके इसे साफ चीनी बनाने के लिए क्योरिंग हाउस में भेज दिया जाता था।

चीनी मिल की शुरुआत

कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1520 तक मैदानी क्षेत्रों में गन्ने की खेती बढ़ रही थी, स्पैनिश एक्सप्लोरर कोरटेज ने 1535 में उत्तरी अमेरिकी में पहली चीनी मिल की स्थापना की थी। जल्दी ही इसकी खेती पेरू, ब्राजील, कोलम्बिया और वेनेजुएला में फैल गई। 1547 में प्यूर्टो रिको में भी पहली चीनी मिल स्थापित हो गई। सन् 1600 तक अमेरिका के कई हिस्सो में चीनी उत्पादन दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे आकर्षक उद्योग बन गया था। वेस्ट इंडीज के ‘शर्करा द्वीप’ इंग्लैंड और फ्रांस के लिए आर्थिक रूप से काफी फायदेमंद साबित हुए।

तकनीक भी जुड़ गई

1813 में, आविष्कारक एडवर्ड चार्ल्स हॉवर्ड ने चीनी को रिफाइन करने की एक अधिक फ्यूल एफिशिएंट विधि विकसित की, जिसमें गन्ने के रस को भाप से गर्म करके बंद केतली में उबाला जाता था और पार्शियल वैक्यूम में रखा जाता था। इसे “हावर्ड का वैक्यूम पैन” कहा जाता है, इस अविष्कार ने चीनी उद्योग में क्रांति ला दी। 

चीनी की गुलामी

एक बार रिफाइंड चीनी का स्वाद यूरोपीय लोगों की जीभ तक पहुंच गया, तो वे इसके दीवाने हो गए, उनकी इस पसंद ने विदेशी क्षेत्रों में गन्ने की खेती की मांग को काफी बढ़ा दिया। जल्द ही, वेस्ट इंडीज में ब्रिटिश और फ्रांसीसी बागानों ने गन्ने के उत्पादन पर हावी होना शुरू कर दिया। बड़ी मात्रा में चीनी के उत्पादन के लिए बहुत ज़्यादा लेबर की ज़रूरत होती थी, इसलिए इस व्यापार से अफ्रीकी गुलामों को जोड़ा गया। 

चीनी की बढ़ती मांग के साथ यूरोप में ट्रांसलांटिक दास व्यापार की भी शुरुआत हुई। ब्रिटिश बंदरगाहों, पश्चिम अफ्रीकी गुलाम बंदरगाहों और वेस्ट इंडीज के बीच एक त्रिकोणीय शिपिंग रुट डेवलप हुआ। ब्रिटिश बंदरगाहों में, जहाजों को माल से भर दिया गया था और पश्चिम अफ्रीका भेज दिया गया था जहां से काले अफ्रीकियों को गुलाम बनाकर यूरोप लाया जाता था। गुलामों को अक्सर डेक के नीचे एक साथ बांध दिया जाता था और वेस्ट इंडीज ले जाया जाता था जहां ज़िंदा बचे गुलामों को बागान मालिकों को बेच दिया जाता था। जहाजों को आखिरी बार चीनी और रम के साथ फिर से लोड किया गया और इंग्लैंड के लिए भेज दिया गया। अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक ब्रिटिश जहाज एक वर्ष में लगभग 50,000 गुलामों को ले जा रहे थे और ब्रिस्टल और लिवरपूल जैसे पश्चिमी तटों पर ब्रिटिश बंदरगाह गन्ने के उत्पादों के साथ खूब फले-फूले।

1853 में अफ्रीका के गुलाम आज़ाद हो गए और उन्होंने गन्ने के खेतों में काम करना छोड़ दिया। यूरोप के सामने एक बार फिर मज़दूरों का संकट खड़ा हो गया। इसके बाद यूरोप ने चीन, भारत और पुर्तगाल से कम दामों में मजदूर बुलाना शुरू किए। इन मज़दूरों को एक निश्चित समय के लिए अनुबंधित करके वहां ले जाया जाता था। मजदूर श्रम, राष्ट्रीय अभिलेखागार, ब्रिटिश सरकार की 2010 की रिपोर्ट के मुताबिक, 1836 में भारत का मज़दूरों से भरा हुआ पहला जहाज़ इंग्लैंड गया।

अभी भी यूनाइटेड किंगडम के कुछ द्वीपों में एशियाई प्रवासियों की आबादी 10 से 50 फीसदी के बीच है। ऑस्ट्रेलिया के मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान क्वींसलैंड (अब ऑस्ट्रेलिया का एक राज्य) में 1863 से 1900 के बीच गन्ने के खेतों में काम करने के लिए 50,000 से 62500 लोग दक्षिणी प्रशांत द्वीप समूह से आए।

फिर सस्ती हो गयी शक्कर

16वीं सदी तक शक्कर बहुत महंगी थी। तब इसे एक लक्सरी माना जाता था लेकिन 16वीं शताब्दी के बाद इसकी कीमत काफी गिर गयी और इसके दो कारण थे। पहला, मठों के खिलाफ सुधार आंदोलन होने से शहद की सप्लाई बंद होना, क्योंकि ये शहद के मुख्य उत्पादक थे। दूसरा, 16वीं सदी के बाद चीनी की आपूर्ति में काफी बढ़ोतरी हुई। गन्ने की खेती का आधुनिकीकरण तब शुरू हुआ जब 1938 में लुइसियाना में गन्ने की कटाई के लिए 16 फूल स्टॉक हार्वेस्टर का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से लेबर मिलना कम हो गए और मशीनीकरण को बढ़ावा मिला। 1946 तक लुइसियाना में फुल स्टॉक मशीनों की संख्या बढ़ गई।  

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