आतंकी कैम्पों पर हमले के बाद भारतीय सेना ने शेयर की यह कविता, दिया बड़ा संदेश

भारतीय वायुसेना ने मंगलवार तड़के पाकिस्तान के अंदर घुसकर आतंकी कैम्पों को तबाह कर दिया है। इस सैन्य कार्यवाही को वायुसेना के मिराज-2000 लड़ाकू विमानों के जरिए अंजाम दिया गया। बताया जा रहा है कि सेना ने पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद, बालाकोट व चकोटी में आतंकवादी ठिकानों पर हमले कर कई आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया है। इस मौके पर भारतीय सेना ने भी एक कविता ट्वीट कर देशवासियों के उत्साह को कई गुना बढ़ा दिया है। सेना के पब्लिक इंफॉर्मेशन अधिकारी ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता की कुछ लाइन पोस्ट की हैं, जो सेना के कौशल पर बिलकुल सटीक बैठती है।
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कविता में लिखा- क्षमाशीलता को समझते हैं कायरता
भारतीय सेना के एडिशनल जनरल ऑफ पब्लिक इंफॉर्मेशन ने एक ट्वीट कर सेना की बहादुरी को सलाम किया है। हिन्दी में किए गए इस ट्वीट में भारतीय सेना ने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह की कविता को शामिल किया है। इस कविता के सार को समझें तो इसमें कहा गया है अगर कोई व्यक्ति ज्यादा क्षमाशील हो जाता है तो उसे कायर समझा जाने लगता है।
इस बात को कौरवों के प्रसंग के माध्यम से समझाया गया है। भारतीय सेना ने रामधारी सिंह की कविता 'क्षमाशील हो रिपु-समक्ष, तुम हुए विनीत जितना ही, दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही। सच पूछो, तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की, सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।' को पोस्ट किया है।
50 साल पहले लिखी थी कविता
राष्ट्रकवि के नाम से मशहूर रामधारी सिंह दिनकर ने यह कविता आज से 50 साल पहले लिखी थी। वीर रस से ओतप्रोत यह कविता हमें अन्याय को न सहने की सीख देती है। कविता सहन शक्ति और उसकी ताकत के महत्व का भी वर्णन करती है। साथ ही यह भी बताती है कि कभी कभी ताकत दिखानी भी जरूरी होती है और इसे दिखाना भी चाहिए, तभी आपकी सहनशीलता और क्षमा का भी मान होता है. दिनकर ने ये कविता भारत की ताकत, सहनशक्ति और क्षमता को रिफलेक्ट करते हुए 50 साल पहले लिखी थी, जो आज भी प्रासंगिक है।
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पढ़िए पूरी कविता
कायर समझा उतना ही।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।'
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ, कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
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