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...तो इस वजह से कांग्रेस के खेवनहार कहे जाते थे प्रियरंजन दासमुंशी
बंगाल में कांग्रेस के खेवनहार कहे जाने वाले प्रियरंजन दासमुंशी वहां की जनता में काफी लोकप्रिय थे।
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यकीनन कांग्रेसियों को प्रियरंजन दासमुंशी की कमी काफी खल रही होगी। प्रणब मुखर्जी के बाद दासमुंशी ही बंगाल में कांग्रेस के खेवनहार रहे हैं। उनका हमेशा ही स्‍थानीय जनता के बीच प्रभुत्‍व सा कायम रहा करता था। हालांकि, दासमुंशी वर्ष 2008 से ही बीमार चल रहे थे।

13 नवंबर, 1945

खेल में थी काफी दिलचस्‍पी

13 नवंबर, 1945 को जन्मे प्रियरंजन दासमुंशी 25 साल की उम्र में 1970 में पश्चिम बंगाल यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे। अगले साल 1971 में वे साउथ कलकत्ता सीट जीत कर संसद में पहुंच गए। इसके बाद उन्‍होंने साल 1984 में हावड़ा लोकसभा सीट जीती। 1985 में वे पहली बार केंद्र में मंत्री बने। दासमुंशी को चुनावों में हार का समाना भी करना पड़ा। उन्‍हें दो बार 1989 और 1991 में हावड़ा सीट गंवानी पड़ी लेकिन फिर वो लगातार दो बार 1999 और 2004 में रायगंज सीट पर कब्‍जा कर लोकसभा पहुंच गए। दासमुंशी की खेलों में भी खासी दिलचस्पी रही है। वे करीब 20 साल तक ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के अध्यक्ष भी रहे।

2008
जब गए कोमा में

वर्ष 2008 में दासमुंशी को जब दिल का दौरा पड़ा था उस समय पक्षाघात के चलते उनकी दिमाग की एक नस ने काम करना बंद कर दिया था। इस कारण वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में बतौर सूचना प्रसारण मंत्री काम करते हुए अपने राजनीतिक करियर के शिखर पर थे। उन्हें जो हुआ है उसे सामान्य शब्दों में समझें तो उनकी दिमाग की कुछ नसें इस तरह से प्रभावित हुई हैं कि उन्होंने काम करना बंद कर दिया था। इस कारण दासमुंशी के शरीर के दूसरे अंग तो काम कर रहे थे ​लेकिन उनका दिमाग नहीं। तभी से वे कोमा में थे।

2009

...तो ऐसी थी प्रियरंजन की छवि

वर्ष 2009 में जब दासमुंशी अस्पताल में संघर्ष कर रहे थे तो उनकी लोकसभा सीट रायगंज से उनकी पत्नी दीपा दासमुंशी चुनाव जीतीं। इस सीट के बारे में माना जाता है कि 1998 का चुनाव हारने के बाद यहां संगठन को पूरी तरह से खड़ा करने का काम प्रियरंजन दासमुंशी ने ही किया था। साल 2014 में भी दीपा की जीत पक्की मानी जा रही थी. लेकिन प्रियरंजन के भाई सत्यरंजन दासमुंशी भी तृणमूल के टिकट पर चुनावी मैदान में कूद गए। परिवार की आपसी खींचतान में जीत माकपा के मोहम्मद सलीम की हो गई। यहां प्रिय रंजन दासमुंशी का असर किस कदर है, इसे सिर्फ हार—जीत से नहीं देखा जा सकता। इन तीनों उम्मीदवारों को मिले मतों पर ध्यान दें तो उनके असर का अंदाजा लगता है। यहां जीतने वाले मोहम्मद सलीम को मिले 3,17,515 वोट। प्रिय रंजन दासमुंशी की पत्नी दीपा दासमुंशी को 3,15,881 वोट मिले। यानी वो सीर्फ 1,634 मतों से हारीं। वहीं प्रिय रंजन दासमुंशी के भाई को 1,92,698 वोट मिले। अब अगर दासमुंशी परिवार के कुल मतों को जोड़ दें तो पता चलता है कि यहां प्रियरंजन दासमुंशी की विरासत कितनी मजबूत है और उनका नाम लेकर चुनाव लड़ने वाला कितनी भारी जीत हासिल करता।

2004
फैशन टीवी पर लगाया था प्रतिबंध

2004 में जब मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो उसमें दासमुंशी न सिर्फ सूचना प्रसारण मंत्री थे बल्कि संसदीय कार्यमंत्री भी रहे। सूचना प्रसारण मंत्री के तौर पर वे काफी चर्चा में रहते थे। कभी एएक्सएन और फैशन टीवी पर प्रतिबंध को लेकर तो कभी खेलों का प्रसारण अधिकार दूरदर्शन को दिलाने को लेकर लेकिन मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चा उनकी उस कोशिश की रही जिसके तहत वे खबरिया चैनलों को नियंत्रित करना चाह रहे थे। इसके लिए उन्होंने एक कानून लाने की तैयारी कर ली थी लेकिन उनके बीमार होने के बाद यह कोशिश धरी की धरी रह गई।

1970

फुटबॉल के प्रति थी गहरी दिलचस्‍पी

13 नवंबर, 1945 को जन्मे प्रियरंजन दासमुंशी महज 25 साल की उम्र में 1970 में पश्चिम बंगाल यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए थे। इसके अगले साल यानी 1971 में वे संसद में पहुंच गए। यहां से वे लगातार राजनीति में आगे बढ़ते गए। वे एक तरफ केंद्र की राजनीति में सक्रिय थे तो दूसरी तरफ राज्य की सियासत में भी उनका दबदबा बढ़ता जा रहा था। 1985 में वे पहली बार केंद्र में मंत्री बने। दासमुंशी की दिलचस्पी खेलों में भी खासी रही है। वे तकरीबन 20 साल तक ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन के अध्यक्ष भी रहे। यहां यह बताना भी बनता है कि बंगांल में फुटबॉल के प्रति आकर्षण क्रिकेट से किसी भी लिहाज से कम नहीं है।

1994
लंबी दोस्‍ती के बाद दीपा से की शादी

दासमुंशी ने लंबी दोस्‍ती के बाद कोलकाता की समाज सेविका दीपा दासमुंशी के साथ साल साल 1994 में ब्‍याह रचाया था। दोनों का एक बेटा प्रियदीप दासमुंशी है। एक बार एक इंटरव्‍यू में उन्‍होंने कहा था, 'दोस्त तो मेरे कितने ही हैं लेकिन सबसे बड़ी दोस्त हैं मेरी बीवी। एक लंबी दोस्ती के बाद मेरे साथ उनकी शादी हुई लेकिन दोस्त तो और भी बहुत हैं। दोस्ती के मामले में मैं पार्टी का विचार नहीं करता हूं।'

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