कवि और लेखक तो राजा महाराजाओं के समय से हुआ करते थे लेकिन उनमें पुरुष प्रधानता ही थी। महिलाओं को तब घर-गृहस्थी से फुरसत नहीं थी या यूं कहें कि इजाजत ही नहीं थी। उनके खुद के विचार भले रहे हों लेकिन उन्हें व्यक्त करने की स्वतंत्रता नहीं थी। रचनाएं लिखना तो दूर की बात पढ़ने तक की इजाजत मुश्किल से मिलती थी। लेकिन धीरे-धीरे महिलाओं ने भी हिम्मत दिखाई, बिना दहलीज लांघें ही बगावत कर दी अपनी कलम से। उन्होंने न केवल समाज से अपना हक मांगा बल्कि अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध करना भी शुरू किया। इस महिला दिवस पर हम बता रहे हैं आपको उन बेबाक लेखिकाओं की कहानी जिन्होंने न केवल अपनी रचनाओं से महिला अधिकारों की मांग की बल्कि ये भी साबित कर दिखाया कि महिला हमेशा पुरुष से आगे ही थी फिर चाहे वो कोई भी क्षेत्र क्यों न हो।
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इस्मत चुगताई: लेडी चंगेज खां के नाम से मशहूर
इस्मत चुगताई
इस्मत को महिला सशक्तिकरण के रूप में देखा जाता था। उन्होंने अपने बेबाक लेखन से महिला अधिकारों की बात की, महिला हिंसा, उत्पीड़न के तमाम किस्से उनकी कहानियों में मिले। ये कहना गलत नहीं होगा कि इस्मत की कलम बंदूक बन गई थी। उनकी लिखावट का खुलापन लोगों को हजम नहीं हुआ और विरोध भी जमकर हुए लेकिन लेखिका पर इन बातों का कोई फर्क नहीं पड़ा। इस्मत चुगताई को उनकी लेखनी की वजह से लेडी चंगेज़ खां तक कहा गया। उन्हें यह नाम उर्दू की लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर ने दिया था। उनकी सबसे ज्यादा विवादित कहानी 'लिहाफ' रही। इसमें उस दौर में लेस्बियन संबंधों के बारे में लिखा गया। कहानी की कामुकता और खुलापन लोगों को रास न आई और आलोचना का शिकार हुई। उस समय भी ऐसी कहानियां लिखी जाती थीं लेकिन ये हक सिर्फ पुरुष साहित्यकारों के पास था महिला लेखिकाओं के लिए कुछ सीमाएं थीं जिन्हें इस्मत तोड़ चुकी थीं। समाज की आलोचनाओं और तंज का इस्मत पर कोई असर नहीं हुआ उनकी लेखनी बराबर चलती रही बिना किसी की परवाह किए हुए।
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कृष्णा सोबती: रचनाओं में दिखा महिला सशक्तिकरण
कृष्णा सोबती
हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कृष्णा सोबती का अभी हाल ही में निधन हो गया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में महिला सशक्तिकरण और स्त्री जीवन की जटिलताओं का वर्णन किया। इनके उपन्यास 'मित्रो मरजानी' को हिंदी साहित्य की बोल्ड रचनाओं में से एक माना जाता है, जिसमें एक महिला की सेक्स इच्छा को लेकर बात की गई थी। सोबती अपने विचारों को लेकर काफी मुखर थीं और काफी दमदार तरीके से अपनी बात कहती थीं। सोबती को 1981 में शिरोमणि पुरस्कार और 1982 में हिंदी अकादमी पुरस्कार मिला। कृष्णा सोबती ने यूपीए सरकार के दौरान पद्मभूषण लेने से इनकार कर दिया था। वहीं 2015 में असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने को लेकर भी वो चर्चा में रहीं। इसके अलावा दिलोदानिश, जिंदगीनामा, ऐ लड़की, समय सरगम, सूरजमुखी अंधेरे के, जैनी मेहरबान सिंह जैसी रचनाएं उनकी प्रसिद्ध रहीं।
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शिवानी: कहानियाें में दिखी स्त्री-व्यथा
शिवानी
शिवानी ने अपनी कहानियों में स्त्री-व्यथा और सामाजिक बन्धनों को बेहद संजीदगी से उकेरा है। उनकी लिखावट ऐसी थी कि पाठकों में जिज्ञासा पैदा कर दे। उन्होंने लगभग 35 उपन्यास लिखे। कृष्णकली, कालिंदी, अपराधिनी और चौदह फेरे इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। इनकी लगभग सारी कहानियां नारी केन्द्रित रहीं जिनमें महिलाएं आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बाद भी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक व धार्मिक विडम्बनाओं की विवशता को झेलते हुए दिखीं। शिवानी की हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, गुजराती और बंगला भाषा पर अच्छी पकड़ थी।
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अमृता प्रीतम: आजाद ख्यालों की लेखिका
अमृता प्रीतम
उस दौर में जब लड़कियों को प्रेम करने की इजाजत नहीं थी, अमृता न केवल पूरी तरह से साहिर के प्रेम में डृबीं थीं बल्कि उनके लिए घर गृहस्थी सब छोड़ दिया । उनके इसी अंदाज के कारण वो आजाद ख्याल की लड़कियों की रोल मॉडल बनीं। इनकी रचनाओं में "रसीदी टिकट' और 'पिंजर' प्रसिद्ध थीं। पिंजर पर बाद में फिल्म भी बनाई गई। अमृता ने प्यार को आजादी कहा और जब साहिर को किसी और से प्रेम हो गया तो वो आम औरतों की तरह शिकायतें न करके चुपचाप जिंदगी को जीने लगीं। उन्होंने कभी साहिर से लौट आने के लिए मिन्नतें नहीं की बल्कि उन्हें आजाद कर दिया। उनकी लेखनी में भी उनके आजाद ख्याल दिखे। वो उस जमाने में इमरोज के साथ लिवइन में रहीं जब लोग इसे खुलेपन पर हजारों सवाल खड़े कर देते थे। दो बच्चों के बाद भी एक तरफा प्यार के लिए गृहस्थी को छोड़कर आगे बढ़ाना आसान नहीं था न ही बिना शादी के इमरोज के साथ एक लंबा वक्त गुजराना। लेकिन दुनिया के सवालों की परवाह किए बिना अमृता ने अपनी जिंदगी को हमेशा अपनी शर्तों पर जिया और यही आजादी उनकी कलम में भी दिखी।
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महाश्वेता देवी: वंचित तबके की बनीं आवाज
महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी ने अपनी रचनाओं में स्त्री अधिकारों, अदिवासियों और वंचित तबके की आवाज का उठाया। उनकी पहली रचना 'झांसी की रानी' थी, जो 1956 में छपी। इनकी कई रचनाओं में भारत की अधिसूचित जनजातियों, आदिवासी, दलित, शोषित, वंचित समुदाय के संघर्ष और कष्ट को दर्शाया गया। उनकी कई रचनाओं पर फ़िल्में भी बनी, जिनमें उपन्यास 'रुदाली' पर कल्पना लाज़मी ने 'रुदाली' तथा 'हजार चौरासी की मां' पर इसी नाम से फिल्मकार गोविंद निहलानी ने फ़िल्म बनाई। उन्होंने सौ के करीब उपन्यास और दर्जनों कहानी संग्रह लिखे, उनकी प्रमुख कृतियों में अग्निगर्भ, मातृछवि, नटी, जंगल के दावेदार, मीलू के लिए, मास्टर साहब शामिल है। महाश्वेता देवी को उनकी कृतियों के लिए रमन मैग्सेसे अवॉर्ड और देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण सहित तमाम पुरस्कारों से नवाजा गया।