एक नर्म मिज़ाज शख़्सियत, एक हरफनमौला शायर, एक मुफलिस मगर खुद्दार इंसान और उर्दू शायरी को एक नया मकाम देने वाले मीर को आज लोग भले ही ज़्यादा न जानते हों, लेकिन शायरी में मीर का जो मनसब है वो कोई हासिल नहीं कर सकता।
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रेख़्ता के उस्ताद
जिन्हें मिर्जा गालिब भी मानते थे उस्ताद
यूं तो लोगों की ज़ुबां पर शायरी का नाम आते ही मिर्ज़ा ग़ालिब याद आते हैं, लेकिन एक ऐसा भी शायर था, जिसकी तारीफ के कसीदे खुद मिर्ज़ा पढ़ते थे। बात इश्क़ की हो या हिज्ऱ की ख़ुदा-ए-सुखन को मिर्जा भी शायरी में अपना उस्ताद मानते थे। उनकी शान में मिर्ज़ा लिखते हैं -
रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब,
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था...
मिर्ज़ा ग़ालिब ने ये बात मीर तक़ी मीर के बारे में कही थी। वो मीर तक़ी मीर जिन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न यानि शायरी का ख़ुदा कहा जाता है। इस बारे में एक क़िस्सा भी काफी मशहूर है। कहते हैं एक बार एक शख्स ने दूसरे से पूछा- बताओ, दुनिया का सबसे बड़ा शायर कौन है? जवाब मिला- ग़ालिब। जब वो मुतमईन नहीं हुआ तो जवाब देने वाले शख़्स ने जौक, मोमिन जैसे कई और नाम भी गिना दिए। तब सवाल पूछने वाले को कहना ही पड़ा। क्या तुम्हें मीर याद नहीं आते? जवाब मिला- तुमने सबसे बड़ा शायर पूछा था, शायरी के ख़ुदा के बारे में थोड़े ही पूछा था।
इस क़िस्से से ये आसानी से समझा जा सकता है कि मीर का मक़ाम शायरी में कहां था। वो दौर जब शायरी सिर्फ़ फारसी भाषा तक सीमित थी, मीर ने उर्दू अल्फाजों का इस्तेमाल कर उसे आम आदमी तक पहुंचाया। ग़ालिब की शायरी में उर्दू का असर मीर की शायरी से ही आया था।
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मीर तक़ी मीर का मकाम
'दीवान-ए-मीर' में अली सरदार जाफ़री लिखते हैं, ‘यद्यपि आज आम लोकप्रियता के विचार से ग़ालिब और इक़बाल, मीर से कहीं आगे हैं और उनकी किताबें मीर की किताब ‘कुल्लियाते-मीर’ के मुकाबले ज़्यादा बिकती हैं, उनके शेर लोगों की ज़बान पर ज़्यादा हैं, उनका प्रभाव वर्तमान शायरी पर अधिक स्पष्ट है। फिर भी ग़ालिब और इक़बाल की शायराना महानता को इनकार करने वाले मौजूद हैं। मगर मीर की उस्तादी से इनकार करने वाला कोई नहीं है। हालांकि, ऐसा भी नहीं है की मीर को ऊपर उठाने का मतलब दूसरे शायरों को नीचे गिराना हो, लेकिन मीर का क़द इतना ऊंचा है कि उनकी हर शायरी, हर ग़जल में आपको वो शिद्दत है कि आप उसे पढ़ें या सुनें, उससे बंध ही जाएंगे।
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शुरुआती जिंदगी
ऐसा कहते हैं कि मीर के पूर्वज अरब के प्रांत हिजाज़ से भारत आए थे। वहां से वे सबसे पहले हैदराबाद आए थे और उसके बाद कुछ वक़्त अहमदाबाद में रहे। इसके बाद वे वहां से अकबराबाद यानि आगरा गए और वहीं बस गए। मीर ने अपने जीवन के बारे में ‘ज़िक्रे मीर’ में लिखा है। मीर के वालिद फ़ौजदार थे। परिवार गरीब था और मीर का बचपन मुश्किलों भरा। सैय्यद अमानुल्लाह की सरपरस्ती में मीर ने जिंदगी के पहले सबक सीखने शुरू किए।
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मुश्किलों भरा सफर
मां-बाप के मामले में भी किस्मत ने मीर का साथ न दिया और 11 साल की उम्र में ही उनके ऊपर से मां-बाप का साया उठ गया। कर्ज़े का बोझ अलग था तो वे आगरा से दिल्ली चले गए। दिल्ली में उनकी मुलाक़ात ख़्वाजा मोहम्मद बासित से हुई। बासित ने ही मीर को नवाब समसाउद्दौला से मिलवाया। यहां नवाब समसाउद्दौला ने मीर के गुज़ारे के लिए एक रुपया रोज़ मुक़र्रर कर दिया। चार या पांच साल ही बीते थे कि 1739 में नादिर शाह ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। समसाउद्दौला मारे गए। मीर की ज़िंदगी में फ़िर मुश्किलें आ गईं और वह आगरा वापस चले गए। लेकिन, वहां गुज़ारा इससे भी ज़्यादा मुश्किल था। आख़िर कुछ दिनों बाद वह फिर दिल्ली गए और अपने नज़दीकी रिश्तेदार ख़ान आरज़ू के साथ रहने लगे।
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जब मीर को हुआ इश्क़
दिल्ली में मीर अपने जिस रिश्तेदार ख़ान आरज़ू के यहां रहते थे, उसकी बेटी से उन्हें इश्क़ हो गया। और इश्क़ भी ऐसा कि बस दीवाने हो गए और इसी दीवानगी में उनकी शायरी परवान चढ़ी। हालांकि, उनकी मोहब्बत के बारे में ज़्यादा कहीं नहीं लिखा है लेकिन, उनकी शायरी में उनका ये इश्क़ साफ नज़र आता है। मीर लिखते हैं -
पत्ता पत्ता, बूटा बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
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मीर और मुफलिसी
वक़्त मीर की शायरी को बुलंदियों पर पहुंचा रहा था, लेकिन ने उनके घर को अपना बना लिया था। जिस दिल्ली में उन्हें उस ज़माने में एक रुपया रोज का वजीफा मिलता था, मीर ने उसे ही अपनी आंखों से इतिहास बनते देखा। नादिर शाह और अहमद शाह अब्दाली का दिल्ली पर हमला और मुगलों का पतन, ये सब उनकी नज़रों में बस गया था। दिल्ली एक ऐसे दौर से गुजर रही थी जब लोगों के पास शायरी के लिए माहौल ही नहीं बच पा रहा था। इस बारे में मीर लिखते हैं -
चोर उचक्के, सिख, मराठे, शाह-ओ-गदा अज़ ख़्वाबां हैं
चैन में हैं जो कुछ नहीं रखते, फिक़्र ही एक दौलत है अब
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जब लखनऊ पहुंचे मीर
मीर की शायरी के दीवाने सिर्फ दिल्ली में ही नहीं थे, लखनऊ तक उनके क़िस्से मशहूर हो गए थे। जब लखनऊ के नवाब आसफउद्दौला को उनके बारे में पता चला तो उन्होंने मीर को लखनऊ बुला लिया। यहां 300 रुपये महीने पर उन्हें नवाब के दरबार में रख लिया गया। लेकिन, मीर के दिल में तब भी दिल्ली ही बसी थी। ऐसा कहते हैं कि जिस दिन लखनऊ आए उसी दिन उन्हें एक मुशायरे में जाना था। नवाबों के इस शहर के तौर-तरीके उन्हें ज्यादा मालूम नहीं थे तो वह अपने पुराने जमाने कपड़ों में ही उस मुशायरे में पहुंच गए। नवाबी रवायत से एकदम अलग दिखने की वजह से उनके अलग होने का अंदाजा तो लोगों को लग गया लेकिन, वे उन्हें पहचान नहीं पाए। इसके बाद उन्होंने दिल्ली की दिलनवाजी पर शायरी की और लोग यहां भी उनके मुरीद हो गए। मीर कहते हैं -
क्या बाद-ओ-बाश पूछो हो, पूरब के शकीनों
हमको ग़रीब जान के, हंस-हंस पुकार के
दिल्ली जो एक शहर था, आलम में इंतेख़ाब
रहते थे मुंतख़ाब ही जहां रोज़गार के
उसको फलक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
जब लोगों को पता चला कि अब तक वे जिस के कपड़ों पर हंस रहे हैं दरअसल, वो मीर हैं तो लोग शर्मिंदा हो गए और फिर मीर ने लखनऊ को ही अपना घर बना लिया।
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मीर की खुद्दारी
मीर जितनी कमाल की शायरी करते थे, उतने ही वे खुद्दार भी थे। कहते हैं कि एक बार लखनऊ के एक नवाब ने उन्हें अपने यहां बुलाया और कुछ तोहफों के बदले उनसे शेर पढ़ने को कहा। शुरुआत में तो मीर ने मना कर दिया, लेकिन जब नवाब ने जोर दिया तो मीर ने उनसे साफ कह दिया कि वह उनकी शायरी नहीं समझ पाएंगे। इस पर नवाब ने कहा कि लेकिन हम महान पर्शियन कवियों अनवरी और खक़ानी की शायरी समझते हैं। इस पर मीर बोले - मुझे यक़ीन है आप समझते होंगे। लेकिन, मेरी शायरी समझने के लिए आपको उस भाषा को समझना ज़रूरी है जो दिल्ली में जामा मस्जिद के बाहर बोली जाती है और वो उसकी जानकारी आपको नहीं है।
ये उनकी खुद्दारी ही थी कि वे ज्यादा लंबे वक़्त तक उनकी नवाब आसफउद्दौला से भी नहीं बनी। कभी-कभी मीर बहुत गुस्सैल हो जाते थे। यूं तो कहते हैं कि मीर बेहद मीठी ज़बान में और हल्की आवाज़ में बोलने वाले शख़्स थे, लेकिन गुस्सा कभी-कभी उन पर हावी हो जाता था। लेकिन लोग उनके इस गुस्से को उनकी खुद्दारी से जोड़कर देखते हैं। एक क़िस्सा है कि एक बार नवाब का बर्ताव उनके लिए कुछ बेरुखा हो गया। इस बात पर मीर इस कदर टेढ़े पड़ गए कि नवाब के 1000 रुपये भी ठुकरा दिया। लखनऊ और दिल्ली की तहज़ीबों में अंतर, लखनऊ वालों का उनकी शायरी को कम आंकना उन्हें कम भाता था। एक बार चिढ़कर उन्होंने लखनऊ वालों से कह दिया, ‘हनोज़ (अब तक) लौंडे हो, कद्र हमारी क्या जानो? शऊर चाहिए इम्तियाज़ (भेद) करने को।’ ऐसा कहते हैं कि मीर ने अपनी ज़िंदगी में इतनी बुरी परिस्थितियां देखीं कि उनके दिमाग पर गुस्सा हावी रहने लगा, जिस वजह से कई बार वो लोगों से झगड़ा कर लेते थे। हालात यह थे कि कुछ लोग तो उन्हें बेदिमाग तक कह देते थे। मीर ने ख़ुद अपने लिए लिखा है-
सीना तमाम चाक है सारा जिगर है
दाग है मजलिसों में नाम मेरा 'मीरे' बेदिमाग
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मीर की शायरी
लोग कहते हैं कि मीर की शायरी की ज़बान रोज़मर्रा की है। हालांकि, उनके ख़्याल काफी ऊंचे हैं। मीर ने अपनी शायरी में कई जगह अरबी और फ़ारसी के अल्फ़ाजों का भी इस्तेमाल किया है, लेकिन फिर भी उनकी शायरी ऐसी है जो हर किसी की समझ में आती है। उनकी ज़बान में जो बेतक्कलुफी है उसका मुकाबला कोई दूसरा शायर नहीं कर पाया। इश्क़ में मिलने की खुशी हो या दूर होने की तड़प, पा लेने की चाहत हो या दूर जाने का ग़म, महबूबा की ख़बूसूरती हो या मोहब्बत में पड़ने का दर्द, बात धर्म पर लिखने की हो या बदलती रवायतों की शायरी के हर मियार में उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। दिल्ली से लखनऊ आने पर जब उन्होंने लोगों के बदलते नज़रिये को देखा। पुराने उसूलों को बदलते देखा, पुरानी परंपराओं को भूलते देखा तो वे काफी दुखी हुए। वो लिखते हैं -
रस्म उठ गई दुनिया से एक बार मुरव्वत की
क्या लोग ज़मीं पर हैं, कैसे ये समां आया?
मौजूदा दौर के प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राणा ने कहा मीर एक समंदर है, जो पढ़ता है डूबता ही चला जाता है.. मीर एक फ़क़ीर है जिसकी दुआओं से उर्दू फल-फूल रही है। उन्होंने कहा कि मीर के साथ न उस दौर के बादशाहों ने इंसाफ किया और न ही बाद की हुकूमतों को उनकी याद आई। मुनव्वर बताते हैं कि आज भी मीर के मज़ार के आस-पास लोग अपने कपड़े धोने जाया करते हैं। उनके मज़ार को इस काबिल न रखा गया कि लोग वहां सलाम करने जाएं।
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आखिरी वक़्त
लखनऊ में मीर ने अपनी ज़िंदगी के 28 बरस बिताए, लेकिन वो कभी इस शहर से उतना प्यार नहीं कर सके जितना वो दिल्ली से करते थे। मीर की कुछ बातों से नाराज़ होकर नवाब ने उनको दिया जाने वाला वजीफा बंद कर दिया और मीर एक बार फिर मुफलिसी से घिर गए। ये वो वक़्त था जब मीर दिल्ली से लखनऊ आने के अपने फैसले को कोस रहे थे। इस पर मीर लिखते हैं-
खराबा दिल्ली का वो चांद बेहतर लखनऊ से था
वहीं मियां खास मर जाता, सारा सीमा न आया यहां
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मीर की रुख्सती
मीर तक़ी मीर ने जब लिखना शुरू किया तो बस लिखते रहे। उनकी क़लम उनकी सांस थमने के साथ ही रुकी। तक़रीबन ढाई हज़ार ग़ज़लें और उनमें से निकले शेर उम्दा पाय के साबित हुए। शायद इसीलिए उनकी शायरी में गहरी मोहब्बत भी दिखती है।
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुद - ब - ख़ुद दिल लगाना
आखिरी तीन सालों में जवान बेटी और बीवी की मौत ने उन्हें बहुत सदमा पहुंचाया। आखिरकार उसी सदमे की वजह से शायर के शहंशाह 87 की उम्र पा कर 21 सितम्बर 1810 में लखनऊ की आगोश में हमेशा के लिए सो गए।
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलोअभी टुक रोते-रोते सो गया है