
देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षाओं में से एक सिविल सर्विसेज का परिणाम अप्रैल के अंतिम सप्ताह में आया। यूपीएससी के आए परिणाम में हर बार की तरह इस बार भी बहुत से ऐसे सफल अभ्यर्थी सामने आए हैं, जिन्होंने अपनी मेहनत से अपना सपना साकार किया है। उनकी कहानियां वास्तव में ऐसे लोगों के लिए प्रेरणादायक हो सकती हैं, जो अक्सर कहते हैं कि हमारे पास कोचिंग करने का बजट नहीं है और न ही इस परीक्षा को हम पास कर सकते हैं। आइए आपको मिलाते हैं आपको ऐसे लोगों से जिनमें से किसी ने रेलवे प्लेटफार्म पर पढ़ाई की तो किसी ने सब्जी बेचकर अपने सपने को साकार किया है।
सपनों को सच करने के लिए प्लेटफार्मों पर सोए शिवागुरू प्रभाकरन
यूपीएससी की 101वीं रैंक हासिल करने वाले तमिलनाडु के तंजावुर निवासी एम. शिवागुरू प्रभाकरन की कहानी वास्वत में ऐसी है जिसको पढ़कर आप यही कहेंगे कि हिम्मत, जज्बे के लाखों मुश्किलों के बाद भी वह व्यक्ति नहीं टूटा। 2004 में पैसे की कमी की वजह से इंजिनियरिंग करने का उनका सपना अधूरा रह गया था। इसके बाद आईएएस बनने की उनकी कहानी बेहद प्रेरणादायक है। तंजावुर जिले के पट्टुकोट्टई में मेलाओत्तान्काडू गांव के निवासी प्रभाकरन की दुनिया शराबी पिता और रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म और आईआईटी मद्रास के गलियारों में गुजरी है। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार प्रभाकरन ने बताया, 'मैं 12वीं क्लास के बाद फैमिली की आर्थिक हालात की वजह से अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सका। पिता के शराबी होने की वजह से परिवार की जिम्मेदारियों का भार मेरे कंधों पर आ गया। मैंने 2 साल तक आरा मशीन में लकड़ी काटने और खेतों में मजदूरी करने का काम किया। मैं किसी भी कीमत पर अपने सपनों को मरने नहीं देना चाहता था।' 2008 में प्रभाकरन ने छोटे भाई के इंजिनियरिंग करने के सपने को पूरा करने में मदद की और बहन की शादी भी करा दी। इसके बाद वह आईआईटी एंट्रेस का सपना आंखों में पाले चेन्नै पहुंच गए। यहां दिन में पढ़ाई करने के बाद वह अपनी रातें सेंट थॉमस माउंट रेलवे स्टेशन के प्लैटफॉर्म पर काटा करते थे। मेहनत की बदौलत प्रभाकरन ने आईआईटी-मद्रास में प्रवेश लिया और 2014 में एम.टेक के नतीजों में टॉप रैंक हासिल किया। इसके बाद प्रभाकरन ने चौथे प्रयास में यूपीएससी परीक्षा में सफलता अर्जित की। वह प्रदेश के गृह विभाग के सचिव जे. राधाकृष्णन को अपना प्रेरणास्त्रोत मानते हैं, जो तंजावुर में कलेक्टर के पद पर अपनी सेवा दे चुके हैं।

कहते हैं कि अगर हौसलों में जान हो तो उड़ान भरी जा सकती है। ऐसा ही कर दिखाया है कि मिर्जापुर जिले में एक किसान के बेटे ने। सब्जी बेचकर एक किसान का बेटा आईएएस बनने जा रहा है। उन्होंने यूपीएससी (आइएएस) में 162वां रैंक प्राप्त की है। किसान के इन बेटों की सफलता से गांव की वह प्राइमरी पाठशाला भी गौरवशाली हो गई जहां से पांचवी तक पढ़ाई करने के बाद ये छात्र आगे निकलने में सफल हुए। आईएएस बनने का सपना देखते हुए इंटर तक सब्जी बेचकर पढ़ाई पूरी करने वाले रामप्रकाश ने मझवां ब्लाक के आही गांव के किसान पिता स्वामीनाथ का सीना चौड़ा कर दिया। पुत्र को पढ़ाई में होनहार देखकर पिता ने अपनी पूरी संपत्ति पढ़ाने के लिए दांव पर लगा दी। आईआईटी अहमदाबाद में चयन होने पर कर्ज लेकर उसकी पढ़ाई कराई। यहां तक कि रामप्रकाश खुद भी इंटर तक सब्जी बेचकर कॉलेज जाते रहे। उनके इसी अथक प्रयास से यह सफलता मिली और पिता ने साए की तरह उनका साथ दिया। रामप्रकाश के बड़े भाई लोको पायलट हैं। अहमदाबाद आईआईटी में चयन और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद वह आरबीआई चेन्नै में तैनात हो गए। पिछले वर्ष आईआरएस में चयन हुआ था लेकिन वह उससे संतुष्ट नहीं हुए। इस बार वह आईएएस बन गए। चयन होने की सूचना पर गांव में खुशी का माहौल व्याप्त हो गया। गांव के लोगों के साथ ही रिश्तेदार और परिचित लोग भी बधाई देने के लिए घर पर पहुंच रहे हैं।

गांव में पढ़कर साकार किया सपना
गांवों में निर्धन बच्चों को पढ़ाकर अपने सपने को पहले ही प्रयास में इस हरियाणा की बेटी ने साकार कर दिखाया है। पानीपत जिले के भादड गांव के रहने वाले किसान ताराचंद की पुत्री रितु को यूपीएससी की परीक्षा में 141वां स्थान मिला है। रितु के पिता ताराचंद और माता सुनीता देवी दोनों भादड गांव के सरपंच पद पर रह चुके हैं। रितु की प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई है। राजकीय कन्या वरिष्ठ माध्यमिक स्कूल, मॉडल टाउन, पानीपत से 96 प्रतिशत नंबरों के साथ रितु ने 12वीं की परीक्षा पास की थी। वहीं, बीएससी में 86 प्रतिशत और एमएससी में 88 प्रतिशत अंक प्राप्त कर गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं। बिना कोचिंग के ही यूपीएससी की परीक्षा पास करने वाली रितु निर्धन वर्ग के बच्चों को निशुल्क ट्यूशन भी देती हैं। बेटी के आईएएस बनने पर पिता ताराचंद ने कहा कि उन्होंने अपने बेटी को बेटों की तरह पाला और उसे अच्छी तालीम दिलाई है। रितु का अब ऐसे ही आगे भी सेवाभाव जारी रखने का इरादा है। बता दें कि रितु के भाई सुमित इंजीनियर और भाभी टीचर हैं। यूपीएससी ने सिविल सेवा परीक्षा 2017 के नतीजों का ऐलान किया था।

सपनों को हकीकत में बदलने के लिए वास्तव में अगर ठान लिया जाए तो हासिल किया जा सकता है। ऐसे ही मुरादाबाद की इल्मा अफरोज ने किया। सपने बड़े देखे और उनको पूरा करने की एक छोटे से कस्बे कुंदरकी से ठानी और यूपीएससी की परीक्षा में 217वीं रैंक हासिल करके अपना नाम रोशन किया। बड़े सपने और उन्हें पूरे करने की जिद। संकरी गलियों के बीच छोटा सा घर। उस घर का नजारा शनिवार को बिल्कुल बदला हुआ है। उन्होंने शहर में रहकर नहीं, अपने खेत और खलिहान में रहकर पढ़ाई पूरी की, कभी कोचिंग नहीं की। 26 साल की उम्र में अफसर बनकर किसान की बेटी ने बुलंदी की नई इबारत लिखी है। इस पर पूरा मुरादाबाद गर्व कर रहा है। बेहद सहज और सरल स्वभाव वाली इल्मा बचपन से ही प्रतिभा की धनी हैं। इल्मा के दृढ़ संकल्प के आगे जीवन की तमाम कठिनाइयों ने घुटने टेक दिए। दर्शनशास्त्र के साथ-साथ इल्मा को संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान है।वह कहती हैं कि सफलता के लिए खुद पर भरोसा करना जरूरी है। वह अगर समय पाती थी तो गांव में अपने खेतों में भी पहुंच जाती थी।

मदरसे में पढ़ने वाले शाहिद ने पास की परीक्षा
मदरसे में पढ़ने वाले टी शाहिद ने यूपीएससी परीक्षा पास करके ये साबित कर दिया कि सिर्फ बड़े वा नामी कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चे ही बुद्धिमान नहीं होते। जो सच में कुछ करना चाहता है वो हर जगह राह ढूंढ ही लेता है। मदरसे आतंकियों की पनाहगार नहीं हैं बल्कि वो भी शिक्षा के घर हैं। शाहिद को कभी स्कूल में पढ़ने का मौका नहीं मिला। उनकी पूरी पढ़ाई मदरसे में हुई और बाद में वो यहीं पढ़ाने भी लगे। केरल के कोझिकोड जिले के तिरुवल्लूर गांव में रहने वाले 28 वर्षीय शाहिद ने अपने छठवें प्रयास में यूपीएससी परीक्षा पास कर ली। यूपीएससी की परीक्षा में शाहिद को 693वां स्थान मिला है। उनके पिता अब्दुल रहमान मुसालीयार मदरसा शिक्षक हैं और मां सुलेखा गृहणी हैं। शाहिद ने कहा कि उन्हें कोझिकोड में कप्पा में एक अनाथालय द्वारा संचालित एक मुस्लिम धार्मिक शैक्षिक संस्थान में पढ़ने के लिए मजबूर थे क्योंकि जब वो 10 साल के थे तब से घर के हालात इतने खराब थे कि वो स्कूलों की फीस हीं भर सकते थे। पैसों की कमी के चलते में वो कभी अच्छे स्कूल में पढ़ाई नहीं कर पाए। शाहिद ने साल 2010 से 2012 तक कन्नूर में मदरसा शिक्षक के रूप में 6,000 रुपए महीने में काम किया। साल 2012 में अंग्रेजी में डिग्री हासिल करने के बाद कुछ समय के लिए उन्होंने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) द्वारा संचालित मलयालम डेली चंद्रिका में काम किया। शाहिद ने कहा कि इस दौरान मैंने सामान्य मुद्दों के बारे में पढ़ना शुरू कर दिया। इस्लामी संस्थान में 12 साल के जीवन ने मेरे नजरिये को संकीर्ण कर दिया था।

जिंदगी कभी सम्मान पाने को भटकती थी शायद इसकी वजह ये थी कि उनके परिजन मुफलिसी व मजदूरी करके जिंदगी गुजार रहे थी। लेकिन गुरबत में गुजर रही जिंदगी में भी बेटा सुनहरे दिन लाया और यूपीएससी की परीक्षा पास करके पूरे क्षेत्र में अपने मां-बाप का नाम किया। जी हां फिरोजबाद उत्तरप्रदेश के पंकज यादव जिन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में 782वीं रैंक हासिल की। पंकज बेशक आज युवाओं के लिए एक आइकन के तौर उभरता सितारा बन गए हैं। लेकिन उनकी हकीकत यह रही है कि विरासत में उन्हें न पैसा मिला और न सम्मान। दैनिक जागरण में छपी खबर के अनुसार पंकज यादव के पिता भूरी सिंह यादव चूड़ी कारखाना में मजदूरी करते थे। पंकज ने 64 फीसद अंक के साथ हाईस्कूल तथा 69 फीसद अंक के साथ इंटर पास किया। दो छोटी बहनें थीं तो पिता की रोज की कमाई 250 से 300 रुपये। खेत के नाम पर महज दो बीघा जमीन। पंकज के लिए आगे की पढ़ाई भी मुश्किल हो गई। इंटर के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। थक-हारकर पिता का हाथ बंटाने को दिल्ली में एयरपोर्ट पर प्राइवेट नौकरी देने वाली कंपनी का फॉर्म भरा तो ग्राउंड स्टाफ में सलेक्शन हो गया। इससे भीषण गरीबी झेल चुके पंकज का हौसला काफी बढ़ गया। उन्होंने नौकरी के साथ पढ़ाई भी पूरी करने की सोची। इसके लिए उन्होंने वर्ष 2011 में नौकरी के साथ दिल्ली में ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) में पॉलिटिकल साइंस एवं इंटरनेशनल रिलेशन में ग्रेजुएशन में दाखिला लिया। दोस्तों से आइएएस परीक्षा के संबंध में जानकारी मिली। बस, जिंदगी में कुछ कर गुजरने की ललक में लक्ष्य तय कर लिया कि आइएएस बनना है। दिन में नौकरी और रात में पढ़ाई। पंकज ने ग्रेजुएशन के बाद इसकी तैयारी शुरू कर दी। पंकज ने वर्ष 2014 में ग्रेजुएशन के बाद इसकी तैयारी शुरू कर दी, लेकिन कहीं से कोचिंग नहीं ली। वर्ष 2016 में पहले प्रयास में सफलता नहीं मिली।

चाय वाले का बेटा बना आईएएस अफसर
वास्तव में यह बहुत ही प्रेरणादायक कहानी है कि आखिरकार कैसे करके एक युवा ने अपने माता पिता का सपना साकार किया। राजस्थान के जैसलमेर के सुमलियाई गांव के रहने वाले देशलदान की कामयाबी वास्तव में काफी प्रेरणादायक है। यूपीएससी परीक्षा में उन्होंने 82वीं रैंक हासिल की। पिता के सहयोग और देशलदान की कड़ी मेहनत से परिवार के सामने आखिरकार बदहाली दूर करने का रास्ता खुल गया है। खबरों के मुताबिक, देशलदान के पिता परिवार की आजीविका चलाने के लिए चाय की थड़ी (गुमटी) चलाने का काम करते हैं। उनकी दुकान जैसलमेर के चुंगी नाका चौराहे पर स्थिति है। चाय की दुकान चलाने वाले पिता ने बेटे को पढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी बदहाली को आड़े नहीं आने दिया। बेटे की प्रतिभा को मंजिल दिलाने के लिए ब्याज पर कर्ज लेकर उसे पढ़ाया। 10वीं में ही उन्होंने देशलदान को बेहतर शिक्षा देने के लिए कोटा भेज दिया। जब भी बेटे को पैसे की जरूरत पड़ी पिता ने किसी तरह व्यवस्था करके उसे पैसे भेजे। सिर्फ पैसों तक ही दिक्कत नहीं रहीं बल्कि परिवार में भी ऐसी कुछ घटनाएं हुई, जिन्होंने पूरे परिवार पर काफी आघात पहुंचाया, लेकिन इसके बाद भी देशलदान का हौसला नहीं डगमगाया। नेवी में काम करने वाले भाई की एक दुर्घटना में मौत और उसके कुछ समय बाद जीजा की मृत्यु होने के बाद देशलदान के परिवार के सामने मुश्किल और तनाव की घड़ी आ गई, लेकिन इस स्थिति में भी पिता ने बेटे का हौसला नहीं टूटने दिया।

आंखों की रोशनी जाने के बाद भी यमुनानगर के अंकुरजीत ने सपनों को देखना बंद नहीं किया। उन्होंने देश की सबसे बड़ी सर्विस में आने का फैसला किया और आखिरकार उन्होंने यूपीएससी की परीक्षा में 414वां रैंक प्राप्त की। 25 वर्षीय अंकुरजीत के रेटिना में बचपन से ही बीमारी होने के कारण उनकी नजर बहुत कमजोर है, लेकिन अंकुरजीत ने अपने लक्ष्य के रास्ते में इस कमजोरी को नहीं दिया। उसने अपने दोस्तों की मदद से इंटनेट पर उपलब्ध स्टडी मेटीरियल के ऑडियो एकत्रित किए। रोज इसे सुनकर तैयारी की। अंकुर के पिता सुखदेव सिंह रेलवे में नौकरी करते हैं जबकि मां जसविन्द्र कौर आंगनबाड़ी में सुपराइवजर के पद पर तैनात हैं। उनकी मां के अनुसार अंकुरजीत सिंह ने गांव के राजकीय स्कूल से दसवीं व जगाधरी के एसडी स्कूल से 12वीं की। इसके बाद 2015 में उसने रुड़की स्थित आईआईटी से सिविल इंजीनयिरिंग में बीटेक की। बीटेक परीक्षा के दौरान आंखों में ज्यादा तकलीफ होने पर उसने दो-दो टेबल लैंप लगाकर परीक्षा दी। अंकुरजीत सिंह ने बताया कि उसे बचपन से ही प्रशासनिक सेवाओं में काम करने की ललक है। बीटेक करते हुए उसने सिविल सर्विस की प्राथमिक परीक्षा दी, लेकिन सफलता नहीं मिली। अगले साल प्राथमिक के अलावा मेन परीक्षा तो पास कर ली लेकिन साक्षात्कार में असफल रहे। तीनों स्टेज पार करते हुए 414वां रैंक पाने में सफलता पा ली है।

सिपाही से आईपीएस अफसर बने मनोज
राजस्थान के जयपुर के छोटे से गांव श्यामपुरा के रहने वाले मनोज कुमार रावत की कहानी वास्तव में बहुत ही प्रेरणादायक है। आईपीएस बनने के जुनून में उन्होंने न सिर्फ सिपाही की नौकरी छोड़ी थी कि बल्कि दो से तीन नौकरी छोड़ी। अंतत: उन्होंने यूपीएससी के एग्जाम में 824 रैंक हासिल किया है। लेकिन मनोज के इस बड़ी कामयाबी को हासिल करने की कहानी किसी बॉलीवुड फिल्म से कम नहीं है। जब वे कक्षा-आठ में थे तब उन्होंने सनी देओल की फिल्म 'इंडियन' देखी थी। जिसमें उनके रोल को देखकर वे काफी प्रभावित हुए थे और वही उन्होंने आईपीएस अफसर बनने की प्रेरणा ली थी। 2007 में मनोज ने स्नातक की परीक्षा की और इसी दौरान वे राजस्थान पुलिस में 19 वर्ष की उम्र में कॉन्स्टेबल बन गए थे। इसके बाद उन्होंने 2012 में राजनीति विज्ञान में एमए पूरा किया और नए सपनों को लेकर उन्होंने उसी दौरान कॉन्स्टेबल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। 2013 में लिस नौकरी छोड़ने के बाद वे लोवर डिवीजन क्लर्क की नौकरी में आ गये। देश की सबसे बड़ी परीक्षा में किस्मत आजमाने के लिए उन्होंने क्लर्क की भी नौकरी छोड़ दी। मनोज तैयारी करते समय जूनियर रिसर्च फैलोशिप (जेआरएफ) के लिए दो बार चुना गए, इसके अलावा सीआईएसएफ में सहायक कमांडेंट की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा पीएचडी के लिए नामांकित किए गए। मनोज के पिता शिक्षक हैं और मनोज जेआरएफ करने के बाद भी शिक्षक की नौकरी करने के इच्छुक नहीं थे। वह कहते हैं कि मेरा सपना आईपीएस या आईएएस होना था। मनोज ने कहा है, ''मैं एक मिडिल क्लास परिवार से आता हूं और मैं बचपन से ही जानता था कि जिंदगी में मिलने वाले मौकों को कैसे भुनाना है।''
