
भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी है। विश्व में देश की छवि को मजबूत बनाने में इंदिरा के कई फैसले सराहनीय रहे हैं। इसी के चलते उन्हें 'आयरन लेडी' के नाम से जाना गया।
जीवन और जन्म
इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवम्बर, 1917 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के घर में हुआ था। इनकी माता का नाम कमला नेहरू था जो दिल्ली के प्रतिष्ठित कौल परिवार की पुत्री थीं। इनका नामकरण इनके दादा पंडित मोतीलाल नेहरू ने किया था। पंडित नेहरू ने इनके मासूम चेहरे को देखकर प्यार से प्रियदर्शिनी नाम रख दिया था। इन्हें घर में सभी लोग प्यार से इंदु पुकारते थे। हालांकि, पिता प्रधानमंत्री थे ऐसे में इंदिरा जी को अपने पिता का साथ कम ही मिला। वह अपने दादा-दादी और नौकरों की देखरेख में बड़ी हुईं। इन्हें इनके घर 'आनंद भवन' में ही शिक्षक पढ़ाने के लिए आते थे। कुछ समय के बाद इंदिरा को शांति निकेतन स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया गया। उसके बाद उन्होंने बैडमिंटन स्कूल तथा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में अध्ययन किया। हालांकि, इंदिरा एक औसत दर्जे की छात्रा थीं। उनकी मृत्यु 31 अक्टूबर 1984 को हुई थी।

यूं तो इंदिरा जी का जन्म भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घराने में हुआ था। मगर उनका राजनीतिक सफर उनके पिता जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद वर्ष 1964 में शुरू हुआ था। उस समय चीन के हाथों भारत की करारी शिकस्त के बाद पूरा माहौल ही गांधी परिवार के खिलाफ हो गया था। ऐसे में इंदिरा को हर फैसले का भावी परिणाम समझने का बड़ा अवसर मिला। उनके सामने परिवार की छवि को मजबूती से बनाए रखना एक चुनौती के समान बन गया था। पंडित नेहरू के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनाए गए। उन्होंने कांग्रेस संगठन में इंदिरा जी के साथ मिलकर कार्य किया था। शास्त्रीजी ने उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सौंपा। उन्होंने अपनी इस पहली जिम्मेदारी को बहुत ही सफल अंदाज में निभाया। यहीं से उनके भीतर एक सफल राजनीतिज्ञ बनने का गौरव दिखने लगा। यही नहीं इंदिरा गांधी ने युद्ध के समय सीमाओं पर जवानों के बीच रहते हुए उनके मनोबल को भी ऊंचा उठाया जबकि इसमें उनकी ज़िंदगी को भारी ख़तरा था। कश्मीर के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में जाकर जिस प्रकार उन्होंने भारतीय सैंनिकों का मनोबल ऊंचा किया, उससे यह ज़ाहिर हो गया कि उनमें नेतृत्व के वही गुण हैं जो पंडित नेहरू में थे। अपने परिवार का गौरव उन्होंने वर्ष 1971 में पाकिस्तान को हराकर वापस दिलाया था। फिर इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार तीन पारी के लिए भारत की सफल प्रधानमंत्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं।

1969
इंदिरा गांधी के वर्चस्व वाले काल की शुरुआत वर्ष 1969 में हुई थी। दरअसल, तब पांचवें राष्ट्रपति चुनाव ने इंदिरा गांधी की मजबूती को बयां किया था। हालांकि, उसके बाद से इंदिरा गांधी वर्चस्व स्थापित करने के लिए हर फैसले अपने इकलौते मत से लेने लगीं। बता दें कि साल 1969 में हुए पांचवें राष्ट्रपति का चुनाव जो तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन के असामयिक निधन के बाद हुआ था काफी टक्कर का था। इस चुनाव में ‘स्वतंत्र’ उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे उपराष्ट्रपति वीवी गिरि ने कांग्रेस पार्टी के ‘आधिकारिक’ उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को शिकस्त दी थी। इस सबसे नाटकीय राष्ट्रपति चुनाव में इंदिरा ने अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार को समर्थन नहीं दिया था। पांचवें राष्ट्रपति चुनाव के झटकों ने कांग्रेस पार्टी, सरकार और सरकार के अंदरूनी समीकरणों को हिला दिया जो लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं पर पहला प्रहार कहे जाते हैं। वहीं, जनवरी, 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी का नेता चुना गया था। इस चुनाव में मोरारजी देसाई ने उन्हें तीखी टक्कर दी थी। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1967 में हुए आम चुनाव के बाद देश की जनता से सीधा संवाद बनाना शुरू कर दिया था।

इंदिरा गांधी के जीवन से विवादों का साथ चोली-दामन सा है। वर्ष 1967 में उन्होंने भारतीय मुद्रा रुपये की कीमत को गिराकर देश में विवादों का सफर शुरू किया था। इस फैसले का तब मीडिया में और अन्य दलों ने बहुत विरोध किया था। मगर इंदिरा ने कोई हार नहीं मानी और वह अपने फैसले पर कायम रहीं। बता दें कि यह फैसले उन्होंने अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को खुश करने और उन्हें सूखे के कारण पैदा हुए खाद्य और संसाधन संकट से पार पाने में भारत की मदद करने के लिए मनाने के मकसद से लिया था। फिर भी इंदिरा इस लाइन पर अधिक समय तक नहीं टिक सकीं और महीने भर के भीतर उन्होंने वियतनाम के हनोई और हाइफौंग शहर पर अमेरिकी बमबारी की तीखी आलोचना कर दी। इसके बाद अमेरिका से उनकी दूरी बढ़ने लगी। फिर उन्होंने सोवियत रूस से दोस्ती का हाथ मिला लिया।

बेटे संजय गांधी की मौत से टूटीं इंदिरा
23 जून, 1980 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी की वायुयान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। संजय की मृत्यु ने इंदिरा गांधी को तोड़कर रख दिया। इस हादसे से वह स्वयं को संभाल नहीं पा रही थीं। तब राजीव गांधी ने पायलट की नौकरी छोड़कर संजय की कमी पूरी करने का प्रयास किया। लेकिन, राजीव ने यह फैसला हृदय से नहीं किया था। इसका कारण यह था कि उन्हें राजनीति के दांवपेच नहीं आते थे। जब इंदिरा की दोबारा वापसी हुई तब देश में अस्थिरता का माहौल उत्पन्न होने लगा। कश्मीर, असम और पंजाब आतंकवाद की आग में झुलस रहे थे। दक्षिण भारत में भी सांप्रदायिक दंगों का माहौल पैदा होने लगा था। दक्षिण भारत जो कांग्रेस का गढ़ बन चुका था, 1983 में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हार का सामना करना पड़ा। वहां क्षेत्रीय स्तर की पार्टियां सत्ता पर क़ाबिज हो गईं।
स्माइलिंग बुद्धा भारत द्वारा किये गए प्रथम सफल परमाणु परीक्षण का कूटनाम है। यह परीक्षण जिसे 18 मई 1974 को पोखरण (राजस्थान) में सेना के स्थल पर जिसे पोखरण टेस्ट रेंज कहते हैं वहां वरिष्ठ सेना के अफसरों की निगरानी में किया गया। पोखरण-1 इस मामले में भी महत्वपूर्ण है कि यह संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थायी सदस्य देशों के अलावा किसी अन्य देश द्वारा किया गया पहला परमाणु हथियार का परीक्षण था। आधिकारिक रूप से भारतीय विदेश मंत्रालय ने इसे शांतिपूर्ण परमाणु बम विस्फोट बताया, लेकिन वास्तविक रूप से यह त्वरित परमाणु कार्यक्रम था।
हरित क्रांति लाकर भारत को बनाया अनाज निर्यातक देश
1960 के दशक में भारत में हमेशा से चले आ रहे अनाज की कमी को जैसे गेहूं, चावल, कपास और दूध आदि को इंदिरा ने अतिरिक्त उत्पादन में बदल दिया। इसमें उन्होंने यूनाइटेड स्टेट की कोई मदद भी नहीं ली थी। इंदिरा ने हरित क्रांति को इस कदर सफल बनाया कि वह हमारा देश एक खाद्य निर्यातक देश बन गया। उस उपलब्धि को अपने वाणिज्यिक फसल उत्पादन के विविधीकरण के साथ हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। इसी समय दुग्ध उत्पादन में वृद्धि से आयी श्वेत क्रांति से खासकर बढ़ते हुए बच्चों के बीच कुपोषण से निबटने में मदद मिली।
इंदिरा पर अब तक कई बार सत्तावादी आचरण के आरोप लग चुके थे। उन्हें तानाशाह तक की संज्ञा दी जाने लगी थी। इस बीच साल 1975 में हुए राजनीतिक संघर्ष ने इंदिरा की छवि को काफी प्रभावित किया था। दरअसल, भारतीय राजनीति के इतिहास में कई मौके ऐसे आए हैं जिन्होंने देश की दशा और दिशा ही बदल दी। 1971 में रायबरेली के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने जीत हासिल की। उनकी जीत को उनके प्रतिद्वंद्वी राजनरायण ने चुनौती दी। भारतीय राजनीति के इतिहास में इस मुक़दमे को इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण के नाम से जाना जाता है। 1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया। उस समय राजनारायण ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया था। उन्होंने अपील की कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है, इसलिए उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए। मार्च 1975 का महीना था और जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होने लगीं। दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में 18 मार्च 1975 को पेश होने का आदेश दिया। भारत के इतिहास में ये पहला मौका था, जब किसी मुक़दमे में प्रधानमंत्री को पेश होना था. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने भी पेशी की तैयारी की। अदालत में इंदिरा गांधी को करीब पांच घंटे तक सवालों के जवाब देने पड़े। इंदिरा गांधी और उनके समर्थकों को अंदाज़ा लगने लगा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ जा सकता है। ऐसे में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिशें भी शुरू हुईं। हालांकि, इस मुकदमे की सुनवाई करते हुए जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा के लिए हुआ चुनाव निरस्त कर दिया। यह भारतीय राजनीति में किसी भूचाल से कम नहीं था। फिर इंदिरा गांधी की तरफ से अपील सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई 22 जून 1975 को और वैकेशन जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर के सामने ये अपील आई। उन्होंने इस पर स्थगन का आदेश दे दिया। जस्टिस अय्यर ने फ़ैसला दिया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं। यानी सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के मुताबिक, इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता चालू रह सकती थी।
इसके बाद 25 जून को दिल्ली में जयप्रकाश नारायण की रैली रामलीला मैदान में हुई। इसी रैली के बाद इंदिरा गांधी ने आधी रात को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। देश में आपातकाल लाने के चलते इंदिरा को आज भी दोषी की नजर से देखा जाता है।
ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद हुई राजनीतिक हत्या
5 जून, 1984 की शाम को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके समर्थकों के चंगुल से छुड़ाने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार की शुरुआत की गई। इस ऑपरेशन ने ही इंदिरा गांधी की राजनीतिक हत्या की बुनियाद रख दी थी। सेना को जानकारी थी कि स्वर्ण मंदिर के पास की 17 इमारतों में आतंकवादियों का कब्जा है। इसलिए सबसे पहले सेना ने स्वर्ण मंदिर के पास होटल टैंपल व्यूह और ब्रह्म बूटा अखाड़ा में धावा बोला जहां छिपे आतंकवादियों ने बिना ज्यादा विरोध किए समर्पण कर दिया। ऑपरेशन ब्लू स्टार में कुल 492 जानें गईं। इस ऑपरेशन में सेना के 4 अफसरों समेत 83 जवान शहीद हुए। वहीं जवानों सहित 334 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। पूर्व सेना अधिकारियों ने ऑपरेशन ब्लू स्टार की जमकर आलोचना की। उनके मुताबिक ये ऑपरेशन गलत योजना का नमूना था। इसके बाद 31 अक्टूबर, 1984 को अपने घर से निकल रहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर उनके दो सिख सुरक्षा गार्डों सतवंत और बेअंत सिंह ने गोलियों की बौछार कर दी। ऑपरेशन ब्लू स्टार से पैदा हुई सांप्रदायिकता और कट्टरपंथ ने प्रधानमंत्री की जान ले ली। प्रधानमंत्री की हत्या के बाद शुरू हुए दंगों ने करीब तीन हजार लोगों की जान ले ली। इनमें से ज्यादातर सिख थे। इसमें कोई शक नहीं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार ने सिखों को बुरी तरह आहत किया। लेकिन उससे भी ज्यादा नुकसान चारों तरफ जंगल की आग की तरह फैल रही अफवाहों से हुआ। यहां तक कि खुद फौज भी इससे अछूती नहीं रही। फौज में बड़ी तादाद में तैनात सिख जवानों ने विद्रोह कर दिया था। इंदिरा गांधी के बहुसंख्यक अंगरक्षकों में से दो सतवंत सिंह और बेअंत सिंह ने उनकी हत्या की थी।