अलविदा मिल्खा सिंह : आसान नहीं रहा 'फ्लाइंग सिख' का सफर, बंटवारे का झेला था दर्द
'फ्लाइंग सिख' के नाम से पूरी दुनिया में मशहूर मिल्खा सिंह अब नहीं रहे। रेस की दुनिया का यह महान योद्धा कोरोना से जंग हार गया। चंडीगढ़ के पीजीआई में उन्होंने अंतिम सांस ली। मिल्खा सिंह आज भले ही नहीं रहे लेकिन 91 वर्षीय मिल्खा सिंह अपने पीछे अपना स्वर्णिम इतिहास छोड़ गए है। मिल्खा सिंह का जन्म पाकिस्तान के गोविंदपुरा में हुआ था। बंटवारे उन्होंने भी अपनों के खोने का दर्द झेला है। जिस तरह से उन्होंने अपनों को खोया था, उसका गम उन्हें जिदंगी भर सालता रहा है।
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पाकिस्तान में जन्में मिल्खा सिंह का जीवन संघर्षों से भरा रहा। बचपन में ही भारत-पाकिस्तान बंटवारे का दर्द उन्होंने भी झेला था। भारत-पाक बंटवारे के दौरान ही ट्रेन की महिला बोगी में सीट के नीचे छिपकर दिल्ली पहुंचने से लेकर शरणार्थी शिविर में रहने और ढाबों पर बर्तन साफ कर उन्होंने जिंदगी को पटरी पर लाने की कोशिश की थी। उनकी जिंदगी जब चमकी जब वह भारतीय सेना का हिस्सा बने। सेना में भर्ती होकर एक धावक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई।
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80 अंतराष्ट्रीय दौड़ में से 77 जीतकर बनाया रिकॉर्ड
मिल्खा सिंह ने अपनी 80 अंतरराष्ट्रीय दौड़ों में 77 दौड़ें जीतीं थी, लेकिन रोम ओलंपिक का मेडल हाथ से जाने का गम उन्हें जीवन भर का रहा। वह हमेशा कहा करते थे कि मेरी आखिरी इच्छा है कि वह अपने जीते जी किसी भारतीय खिलाड़ी के हाथों में ओलंपिक मेडल देखें, लेकिन अफसोस उनकी अंतिम इच्छा उनके जीते जी पूरी नहीं हो सकी। वैसे, मिल्खा सिंह की हर उपलब्धि इतिहास में दर्ज रहेगी और वह हमेशा धावकों और आम लोगों के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे। वह कहते थे, 'हाथ की लकीरों से जिंदगी नहीं बनती, अजम हमारा भी कुछ हिस्सा है, जिंदगी बनाने में...’ जो लोग सिर्फ भाग्य के सहारे ही रहते हैं, वे कभी भी सफलता नहीं पा सकते।
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20 नवंबर को गोविंदपुरा में थे जन्मे
'फ्लाइंग सिख' का जन्म पाकिस्तान में हुआ था, उनका बचपन या कहे धावक बनने से पहले की जिंदगी कांटों भरी थी। 20 नवंबर को 1929 को गोविंदपुरा (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) में एक सिख राठौर परिवार में मिल्खा का जन्म हुआ था। वे अपने मां-बाप की कुल 15 संतानों में से एक थे। मिल्खा सिंह के कई भाई-बहनों की मौत बहुत ही छोटी उम्र में हो गई थी। बंटवारे की आग में उन्होंने अपने सामने माता-पिता, एक भाई और दो बहनों को जलते हुए देखा था। इस दर्दनाक मंजर के बाद वे पाकिस्तान से महिला बोगी के डिब्बे में बर्थ के नीचे छिपकर दिल्ली आ गए थे। यहां पर कुछ समय तक भारत सरकार की तरफ से शरणार्थियों के लिए बनाए गए शिविर में रहे। यही पर रहकर उन्होंने अपनी जिंदगी पटरी पर लाने की कोशिश की। शुरुआती दौर में उन्होंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने फुटपाथ पर बने ढाबों में बर्तन साफ किए ताकि कुछ खाने को मिल सके। कुछ दिनों तक वे दिल्ली में रहने वाली अपनी बहन के घर पर भी रहे।
अपने भाई मलखान सिंह के कहने पर उन्होंने सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया। उन्हें चौथी कोशिश के बाद साल 1951 में सेना में भर्ती होने का मौका मिला। यहां पर भर्ती होने के बाद मिल्खा सिंह क सपनों को उड़ान मिली। इसके बाद क्रास कंट्री रेस में छठे स्थान पर आए। इस सफलता के बाद सेना ने उन्हें खेलकूद में स्पेशल ट्रेनिंग के लिए चुना। यहां से फिर उनकी जिंदगी चल पड़ी और देश को 'फ्लाइंग सिख' मिल गया।
कुछ खास पुरस्कार
1958 में मिल्खा सिंह को भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा था।
2001 में भारत सरकार द्वारा अर्जुन पुरस्कार देने की पेशकश की गई, जिसे मिल्खा सिंह ने ठुकरा दिया था।
इस महान धावक को अभी तक भारत रत्न जैसा सम्मान नहीं दिया गया।
धावक के तौर पर पहचान
1956: मेलबोर्न में आयोजित ओलंपिक खेलों में 200 और 400 मीटर रेस में मिल्खा सिंह ने भारत का प्रतिनिधित्व किया
1958: कटक में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में उन्होंने 200 और 400 मीटर दौड़ में नेशनल रिकॉर्ड बनाया। एशियन खेलों में भी इन दोनों प्रतियोगिताओं में उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किया। वर्ष 1958 में ही उन्हें एक और महत्वपूर्ण सफलता मिली, जब उन्होंने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल खेलों में 400 मीटर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता था। इस प्रकार वह राष्ट्रमंडल खेलों के व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने वाले स्वतंत्र भारत के पहले धावक बन गए थे।
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