पहलवानों को लंगोट बेचने वाले की बेटी राष्ट्रमंडल खेल में दिखाएगी दांव

पहलवानी का जोश होने के कारण 1990 के दशक में एक पहलवान इस क्षेत्र में नाम कमाने के लिए कुश्ती लड़ना शुरू करता है, लेकिन उसके इस जुनून में बाधा बनती है आर्थिक कमजोरी। आर्थिक कमजोरी होने के कारण भले ही उस पहलवान की हसरतें पूरी नहीं हो पाती है, लेकिन पहलवानों व उनके गुरुओं से संबंध रखने के लिए लंगोटों (कुश्ती में पहनी जाने वाली ड्रेस) की सप्लाई अखाड़े-अखाड़े में शुरू कर देता है।
पहलवानी की हसरत वह पहलवान भले ही न पूरी कर पाया हो लेकिन अब उसकी बेटी अखाड़े में दांव लगाकर गीता फोगाट जैसी धुरधंर महिला पहलवानों को चित कर रही है। और पहलवानों को चित करते-करते महज 19 साल की उम्र में राष्ट्रमंडल में खेलने का सपना पूरा कर लिया है। यह पहलवान और कोई नहीं बल्कि मुजफ्फरनगर जिले के पुरबालियान गांव की दिव्या सेन काकरान हैं जो इस बार राष्ट्रमंडल खेल में 68 किग्रा की कुश्ती में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। बेटी को पहलवान बनाने की हसरत रखने वाले दिव्या के पिता सूरजवीर सेन पहलवानों को लंगोट व मलहम पट्टियां बेचने का काम करते हैं। दिव्या को पहलवान बनाने की हसरत पूरा करने में उनकी मां ने पिता का पूरा साथ दिया। उन्होंने घर में पहलवानों के लिए लंगोट व अन्य सामान बनाए और पिता ने उनको अखाड़ों में ले जाकर बेचा।
पुरुषों के संग कुश्ती लड़कर आगे बढ़ीं दिव्या

दिव्या के पिता बचपन से ही बेटी को पहलवान बनाने की हसरत रखते थे इसलिए जब बेटी थोड़ा समझदार हुई तो उसे अखाड़ों में ले जाना शुरू कर दिया। 8 साल की उम्र से ही दिव्या ने अखाड़ों में दांवपेंच सीखना शुरू कर दिया। दिव्या के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि उसके साथ में दांव लगाने के लिए लड़कियां ही नहीं थीं क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे बेटियों को दांव सिखाना तो बड़ी दूर की बात उन्हें घर से नहीं निकलने दिया जाता है। इस रूढ़िवादी सोच को मात देते हुए दिव्या सेन ने पहलवानी शुरू की और अखाड़ों में लड़कों के साथ पहलवानी के गुरू सिखने शुरू किए। इसके बाद फिर दंगलों में लड़कों से कुश्ती लड़ने लगी।
दिव्या की कुश्ती में बढ़ती रुचि को देखते हुए उसके पिता सूरज गांव छोड़कर दिल्ली के गोकुलपुर में आ गए और यहीं पर रहकर दिव्या ने दांव सीखने शुरू कर दिए। दिव्या सेन कहती हैं कि पुरुषों के साथ कुश्ती में दंगल लड़ने का एक ये फायदा होता था कि पुरुष पहलवान को मात देने के बाद मुझे इनाम से कहीं ज्यादा राशि दंगल देखने वाली जनता दे देती थी और इन पैसों से मेरी डायट का खर्च चलता था। लड़कों से भिड़ने के बाद मुझे अच्छी खासी उपलब्धि मिली।
दिव्या का परिवार डायट उठाने में नहीं था सक्षम

कहा जाता है कि बहुत लोगों की हसरत पहलवान बनने की इसलिए नहीं पूरी हो पाती है क्योंकि वे डायट का खर्च नहीं उठा पाते हैं। अब पहलवानी घी और दूध की नहीं बल्कि अब पहलवान बनने के लिए मंहगे-मंहगे ड्राईफ्रूट खाने होते हैं। एक पहवालन की औसतन डायट 20 से 25 हजार आती है। आर्थिक वजहों से पहलवानी छोड़ चुके पहलवान सूरज को अपनी बेटी को इतनी डायट खिला पाना बहुत ही मुश्किल काम होता था, लेकिन इसके बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। डायट का इंतेजाम करने के लिए नौकरी की। इसके अलावा पहलवानों को लंगोट भी बेचने शुरू किए।
दिव्या की मां संयोगिता लंगोट (कुश्ती में पहनी जाने वाली ड्रेस) सिलने का काम करने लगीं। और उसके पिता सूरज दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा के अलग-अलग अखाड़ों में जाया करते थे। नौबत यहां तक आ गई कि बेटी को आगे बढ़ाने के लिए मां को अपना मंगलसूत्र तक गिरवीं रखना पड़ा। पूरे परिवार का त्याग आखिरकार बेटी ने सफल कर ही दिया। आज दिव्या एक सफल पहलवान है और अब राष्ट्रमंडल खेल में अपने दांव दिखाने के लिए तैयार है।
इंदौर की कुश्ती दिव्या के पिता को हमेशा रहेगी याद

दिव्या सेन के पिता सूरज कहते हैं कि इंदौर की कुश्ती मेरे लिए स्वर्णिम रहेगी। वहां की कुश्ती मुझे हमेशा याद रही। वे बताते हैं कि इंदौर में राष्ट्रीय कुश्ती चल रही थी और मैं बाहर पहलवानों को लंगोट बेच रहा था। दिव्या ने जैसे ही उत्तर प्रदेश को पीला तमगा दिलाया था वैसे ही वे मेरे पास सीधे भागी हुई चली आई थी। जहां मैं स्टेडियम के बाहर पहलवानों के लिए लंगोट बेच रहा था। दिव्या ने जीत के तुरंत बाद बाहर आकर पदक मेरे गले में डाल दिया। यह पल मेरी जिंदगी का सबसे यादगार बन गया।
अब कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने का लक्ष्य

छह बार की भारत केसरी दिव्या ने पिछले साल पहली बार में ही सीनियर राष्ट्रीय कुश्ती चैंपियनशिप में खेलते हुए उत्तर प्रदेश की झोली में स्वर्ण पदक डाल दिया। अभी हाल ही में उन्होंने हरियाणा के भिवानी जिले में हुए तीसरे भारत केसरी दंगल 2018 में अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी गीता फोगाट को हरा कर शानदार जीत दर्ज की। एशियन चैंपियनशिप की रजत पदक विजेता इस पहलवान का अब अगला लक्ष्य कॉमनवेल्थ गेम्स हैं। वह इसके लिए कड़ी मेहनत कर रही है। वह राष्ट्रीय स्तर पर 15 और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पांच पदक जीत चुकी है।
उन्होंने पिछले साल दिसंबर में जोहानसबर्ग कॉमनवेल्थ चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता था। बीते पांच साल में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कुश्ती में उसने ढेरों पदक जीते हैं। वर्ष 2017 में दक्षिणी अफ्रीका में हुई कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में दिव्या ने भारत को स्वर्ण पदक दिलाया। इससे पूर्व 2015 में उसने दिल्ली में आयोजित एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में 70 किग्रा भार वर्ग में जापान, कीर्गिस्तान और मंगोलिया की पहलवानों को पटखनी देकर गोल्ड जीता। वर्ष 2014 में कश्मीर और 2013 में कन्याकुमारी में नेशनल जूनियर कुश्ती में दिव्या ने सोने का दांव खेला। मंगोलिया में एशियन कुश्ती चैंपियनशिप में उन्होंने रजत पदक जीता। केरल में 2015 में हुए नेशनल गेम्स में सीनियर वर्ग में खेली दिव्या को ब्रांज पदक मिला। अब उनकी नजर कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक पर है।
गीतिका जाखड़ को मानती है अपना रोल मॉडल

दिव्या सेन काकरान पहलवानी में अपना रोल मॉडल गीतिका जाखड़ को मानती है। जिन्होंने 2014 में ग्लासगो में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में 63 किग्राम वर्ग में भारत को सिल्वर मेडल दिलाया था। गीतिका को खेल और कुश्ती विरासत में मिली है। उनके दादा अत्तर सिंह जाखड़ अपने जमाने के जाने-माने पहलवान रहे हैं। पिता सत्यवीर सिंह जाखड़ अच्छे एथलीट रहे हैं और कोच भी हैं। हरियाणा पुलिस में डीएसपी हिसार के अग्रोहा में जन्मी गीतिका जाखड़ देश की पहली अर्जुन अवॉर्डी महिला पहलवान है। वह कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में 2 बार गोल्ड मेडल, एशियन गेम्स में सिल्वर मेडल और जूनियर वर्ल्ड चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल जीत चुकी है। गीतिका 9 बार भारत केसरी रह चुकी है।
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