इन भारतीयों ने बताया, सिर्फ हौसलों से ही उड़ान होती है

हम हमेशा अपनी नाकामयाबी के लिए परिस्थितियों को कोसते रहते रहते हैं। कभी शारीरिक तो कभी आर्थिक। मगर आज आप इस खबर को पढ़ने के बाद भूल जाएंगे कि आपमें भी कोई कमी है। दरअसल, 'इंडिया वेव' आपको आज उन सफल लोगों से मुलाकात कराएगा जिन्होंने अपनी कमजोरी को मात देते हुए सफलता की इबारत लिख दी। वे यूं तो जन्म से ही किसी न किसी शारीरिक समस्या से ग्रसित थे लेकिन उन्होंने हर तरह की दिक्कत को अपनी इच्छाशक्ति से झुका दिया।

अरुणिमा सिन्हा का जन्म वर्ष 1988 में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के अम्बेडकर नगर जिले के शहजादपुर इलाके के पंडाटोला मुहल्ले में हुआ था। बचपन से वॉलीवॉल में रूचि रखने वाली अरुणिमा सिन्हा कुछ अलग करना चाहती थीं। इस बीच उन्होंने शिक्षा ग्रहण करते हुए वॉलीवॉल को अपना कॅरियर बनाना तय किया। सबकुछ ठीक चल रहा था। वह अपने मुकाम की ओर बढ़ती जा रही थीं। मगर इस बीच उनके जीवन में भयानक हादसा हो गया, जिसके बाद उनकी जिंदगी की दिशा ही बदल गई। दरअसल, अरुणिमा 11 अप्रैल, 2011 को पद्मावती एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जा रही थीं। रात के लगभग एक बजे कुछ शातिर अपराधी ट्रेन के डिब्बों में दाखिल हुए और अरुणिमा सिन्हा को अकेला देखकर उनके गले की चेन छीनने का प्रयास करने लगे। इसका विरोध करने पर उन चोरों ने अरुणिमा को चलती हुई ट्रेन से बरेली के पास बाहर फेंक दिया। इस हादसे में उनका एक बायां पैर कट गया। इसके बाद तो उनके सामने जिंदगी पहाड़ सरीखी हो गई। मगर उन्होंने अपने हौसले से सभी को मात देते हुए एक पर्वतारोही बनने का फैसला किया। कृत्रिम पैर के सहारे उन्होंने दुनिया के सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को फतह करने का संकल्प लिया। इसके लिए उन्होंने एवरेस्ट फतह करने वाली प्रथम भारतीय महिला बछेंद्री पाल को गुरू बनाया। शुरू में तो बछेंद्री ने अरुणिमा को ऐसा न करने की सलाह दी। मगर अरुणिमा का हौसला देखकर उन्होंने अपना मन बदल दिया। इसके बाद अरुणिमा ने बछेंद्री की निगरानी में लेह से नेपाल, लद्दाख में पर्वतारोहण के गुर सीखा। फिर पूरी तरह से तैयार होने के बाद अरुणिमा ने 31 मार्च 2013 को मांउट एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की। अंतत: 52 दिनों की दुश्वार चढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने 21 मई, 2013 को माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। इसी के साथ उन्होंने इतिहास में प्रथम दिव्यांग महिला एवरेस्ट विजेता होने का गौरव हासिल कर लिया।

दीपा मलिक शॉटपुट एवं जेवलिन थ्रो के साथ-साथ तैराकी एवं मोटर रेसलिंग से जुड़ी एक विकलांग भारतीय खिलाड़ी हैं। इनका जन्म 30 सितंबर, 1970 को सोनीपत में हुआ था। इन्होंने साल 2016 में पैरालंपिक में शॉटपुट में रजत पदक जीतकर इतिहास रचा था। 30 की उम्र में तीन ट्यूमर सर्जरीज और शरीर का निचला हिस्सा सुन्न हो जाने के बावजूद उन्होंने न केवल शॉटपुट एवं जेवलीन थ्रो में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीते हैं, बल्कि तैराकी एवं मोटर रेसलिंग में भी कई स्पर्धाओं में हिस्सा लिया है। उन्होंने भारत की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 33 स्वर्ण तथा 4 रजत पदक प्राप्त किए हैं। वे भारत की एक ऐसी पहली महिला है जिसे हिमालय कार रैली में आमंत्रित किया गया था। वर्ष 2008 तथा 2009 में उन्होंने यमुना नदी में तैराकी तथा स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो बार लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज कराया। यही नहीं वर्ष 2007 में उन्होंने ताइवान तथा 2008 में बर्लिन में जेवलिन थ्रो तथा तैराकी में भाग लेकर रजत एवं कांस्य पदक प्राप्त किया। कॉमनवेल्थ गेम्स की टीम में भी वे चयनित की गईं। पैरालंपिक खेलों में उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार ने अर्जुन पुरस्कार प्रदान किया। रियो पैरालंपिक खेल-2016 में दीपा मलिक ने शॉटपुट में रजत पदक जीता था। दीपा ने 4.61 मीटर तक गोला फ़ेंका और दूसरे स्थान पर रहीं। पैरालंपिक खेलों में मेडल जीतने वाली दीपा पहली भारतीय महिला बन गई हैं। इसके साथ ही उन्होंने जीरो डिग्री वाले तापमान में 8 दिन में 1700 किलोमीटर की दूरी तय करने का भी कारनामा अपने नाम दर्ज किया है। इसमें 18000 फीट तक चढ़ाई भी शामिल है।

एक पैर ही होने के बावजूद गिरीश शर्मा ने बैडमिंटन की कई प्रतियोगिताएं जीती है। शर्मा ने पैरालम्पिक एशिया कप में स्वर्ण पदक हासिल किया है। गिरिश ने स्पेन, इजराइल, कोरिया, थाईलैंड सहित कई देशों में बैडमिंटन खेल में भारत का गौरव बढ़ाया है। बचपन में एक ट्रेन दुर्घटना में गिरीश का पैर कट गया था लेकिन फिर भी बैडमिंटन के प्रति उनका जुनून कम नहीं हुआ। आज गिरीश सिर्फ अपने हौसले की बदौलत ही लोगों के सामने सफलता की कहानियां लिखते जा रहे हैं। ऐसे लोगों ने ही हौसलों से होने वाली उड़ान की कहावत को चरितार्थ किया है।

सुधा चंद्रन इंडियन एक्ट्रेस और क्लॉसिकल डांसर हैं। सुधा का जन्म केरल में हुआ था। वह जब 16 साल की थीं, तब एक दुर्घटना का शिकार हो गईं थी। डॉक्टर्स ने पैर का ऑपरेशन किया लेकिन घाव पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाए। जो बाद में इंफेक्शन का कारण बना और सुधा को अपना एक पैर खोना पड़ा। सुधा ने इसे अपनी कमजोरी नहीं माना और नकली पैर की बदौलत एक बेहतरीन डांसर बनकर उभरीं। सड़क हादसे में अपने पैर गंवाने के बाद के जद्दोजहद को बयां करते हुए सुधा ने एक बार अपने फेसबुक पर एक पोस्ट में लिखा था कि वह अक्सर लोगों को यह कहते सुनती थी, 'कितने दुख की बात है तुम्हारा सपना पूरा नहीं हो पाएगा या हमारी इच्छा थी कि तुम डांस कर सको।' वह लिखती है, 'पैर गंवाने के बाद मैंने 'जयपुर फुट' की मदद से दोबारा चलना और फिर उसके बाद डांस करना सीखा, जो कि मैं अपनी पूरी जिंदगी जानती थी।'
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