
जिंदगी आगे बढ़ने का नाम है, पीछे मुड़ने का नहीं। क्योंकि इसी के जरिए हम अपनी जिंदगी को और बेहतर बना सकते हैं। ऐसा ही कुछ 70 वर्षीय डॉ सुरेश आडवाणी की जिंदगी से हमें सीखने को मिलता है। जो आठ साल की उम्र से ही व्हील चेयर पर हैं। पर उन्होंने जिंदगी को एक नई राह दिखाई और अपनी मेहनत के बल पर भारत के पहले और प्रसिद्ध कैंसर विशेषज्ञ बन गए।
डॉ सुरेश आडवाणी को आठ साल की उम्र में पोलियों ने अपनी जकड़ में ले लिया और तब से ही वो व्हील चेयर पर बैठे-बैठे अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने में लगे थे। पोलियो को लगता था कि उसकी जद में आकर डॉ आडवाणी हार मान जाएंगे। पर ऐसा नहीं हुआ, डॉ आडवणी ने अपने जज्बे के बल पर पोलियो जैसी बीमारी को बता दिया कि वो क्या हैं। अपनी मेहनत के बल पर वो एक कामयाब डॉक्टर बन गए।
डॉ आडवाणी वर्ष 1974 से ही बतौर कैंसर विशेषज्ञ इस बीमारी से लड़ने से लिए लगातार काम कर रहे हैं। एक समय ऐसा भी था जब डॉ आडवाणी को पोलियो जैसी बीमारी के चलते मुंबई के ग्रांट अस्पताल में एमबीबीएस छात्रों के लिए क्लीनिकल ट्रेनिंग कार्यक्रम में हाउस जॉब देने के लिए इंकार कर दिया था। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और आगे पढ़ाई करके एमडी किया। एमडी करने के साथ ही वो देश के पहले कैंसर विशेषज्ञ बन गए और बाद में अपने कार्यों के लिए उन्हें पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित भी किया गया।
डॉ सुरेश आडवाणी आज देश में ल्यूकीमिया के बोन-मैरो ट्रांसप्लांट के क्षेत्र में सबसे बड़े विशेषज्ञ हैं।
डॉक्टर बनने के लिए किसने किया प्रेरित
जिस बीमारी से डॉ आडवाणी पीड़ित थे, उसी बीमारी ने उन्हें चिकित्सा के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया। बचपन में जब वो पोलियो का इलाज करवाने के लिए अस्पताल में भर्ती हुए तो उन्हें पता चला कि इस बीमारी का इलाज करने के बमुश्किल ही दवाईंयां बाजार में उपलब्ध हैं। पर वहीं अपनी बीमारी के इलाज के दौरान जब उन्होंने डॉक्टरों से बातचीत की और चिकित्सा पेशे की गहराई में गए तो उन्होंने ठान लिया कि आगे चलकर उन्हें भी डॉक्टर ही बनना है। उन्होंने मुंबई के ग्रांट अस्पताल से अपनी पढ़ाई पूरी की और आगे की ट्रेंनिग के लिए रॉयल मर्सडेन हॉस्पिटल लंदन चले गए। बाद में मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल से एमडी किया और कैंसर विशेषज्ञ के साथ-साथ बोन-मेरो ट्रांसप्लांट के क्षेत्र में बेहतरीन काम किया।
कैंसर विशेषज्ञ के रूप में डॉ आडवाणी के पास यह खिताब भी है कि उन्होंने बोन-मेरो ट्रांसप्लांट को सफलतापूर्वक किया। डॉ आडवाणी क्लीनिकल ट्रॉयल में भी मदद करते हैं जिसकी वजह से लिमफोब्लास्टिक ल्यूकीमिया से पीड़ित बच्चों की सेहत को सुधारने में मदद मिलती है। उन्होंने 1200 मरीजों पर यह परीक्षण किया है जिसमें सफलता की दर 20 फीसदी से बढ़कर 70 फीसदी तक हो गई है। आज डॉक्टर आडवाणी कई मेडिकल स्टूडेंट के लिए प्रेरणास्रोत हैं। दिव्यांग छात्रों के वो एक ऐसी रोशनी की तरह हैं जिसने यह कर दिखाया कि न सिर्फ कठिनाइयों को पार किया बल्कि एक विशेषज्ञता भी हासिल की।
युवाओं के लिए संदेश
कोई दिव्यांगता आपको रोक या आपके बारे में बता नहीं सकती। आज भी मैं जसलोक हॉस्पिटल में सफलता के साथ प्रैक्टिस कर रहा हूं। कोई भी मुझे मेरी व्हील चेयर से जज नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ एक बात जानता हूं मैं जब तक अपने ख्वाब को नहीं पा लूंगा, तब तक लगातार उसके लिए प्रयास करता रहूंगा।