कैब चलाकर 400 से ज्यादा बच्चों को पढ़ा रहे हैं 'अनपढ़' जलालुद्दीन

'जब मैं सात साल का था, तब मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। मैने दूसरी कक्षा में टॉप किया था और अगली कक्षा में जाने वाला था। लेकिन, मेरे माता-पिता किताबों पर होने वाला खर्च को वहन करने में समर्थ नहीं थे, इसलिए मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इसी कसक के साथ मैने अपनी जिंदगी गुजार दी।'
यह कहानी है 65 साल के कैब ड्राइवर जलालुद्दीन की, कोलकाता के रहने वाले जलालुद्दीन आज वो काम कर रहे हैं, जिसमें उनको अपनी कसक का इलाज मिलता है। जलालुद्दीन ने अपनी तरह वंचितों को मुख्यधारा में लाने के लिए अभूतपूर्व प्रयास कर रहे हैं, आपको जानकर हैरानी होगी वा आज वह अपने इलाके सुंदरबन में दो स्कूलों और एक अनाथ आश्रम का संचालन कर रहे हैं।
कैब की कमाई से चलाते हैं स्कूल और अनाथालय
जलालुद्दीन कहते हैं कि मुझे नहीं मालूम कि कैब चलाकर मैं स्कूलों और अनाथालय को कितने दिनों तक चला पाऊंगा। मेरे दो बेटे भी कैब चलाते हैं और मेरे इस प्रयास में मेरी मदद करते हैं। स्कूलों में कुल 425 छात्र हैं। इन्हें एक गैर सरकारी संगठन (सुंदरबन ऑरफानेज एंड सोशल वेल्फेयर ट्रस्ट) के रूप में संचालित किया जा रहा है, फिर भी हमें सरकार से कोई मदद नहीं मिल सकी। मैंने स्थानीय जिला प्रशासन से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन नतीजा सिफर रहा।' जलालुद्दीन के स्कूल कोलकाता से लगभग 60 किलोमीटर दूर सुंदरबन (दक्षिण परगना जिले में) के जॉयनगर इलाके में स्थित हैं।
स्कूल में हैं 21 शिक्षक
दोनों स्कूलों में कुल 25 कर्मचारी हैं, जिनमें 21 शिक्षक हैं और यह पूरी तरह गाजी द्वारा टैक्सी से की गई कमाई पर निर्भर हैं। इसके अलावा कुछ लोग उन्हें चंदा देते हैं जिन्हें पता चलता है कि वह लोकोपकारी कार्य करते हैं। उनके यात्री भी इस बात की जानकारी होने पर अलग से कुछ पैसे दे देते हैं, जिससे स्कूलों के संचालन में मदद मिलती है।
कैब पर मदद के लिए दिया है अपना मोबाइल नंबर
उनकी कैब में उनका मोबाइल नंबर (9735562504) लिखा है और मदद के लिए एक अपील की गई है, जिसमें लिखा है, 'टैक्सी से होने वाली पूरी आय अनाथ मिशन, सिक्खायतन मिशन तथा अनाथों के लिए आईआईपीएफ स्कूलों पर खर्च होती है। इसलिए इस टैक्सी के खिलाफ यातायात से जुड़ा कोई मामला मत दायर कीजिए।' गाजी का समय दक्षिण 24 परगना जिले के नरेंद्रपुर तथा इसी जिले में सुंदरबन के जॉयनगर में बीतता है। सप्ताह में कुछ दिन वह नरेंद्रपुर में कैब चलाते हैं, बाकी समय सुंदरबन में बिताते हैं। उनकी पत्नी दोनों स्कूल में निरीक्षक का काम करती हैं। उन्होंने इस बात का खुलासा किया कि उनका परिवार एक स्कूल के परिसर में ही रहता है। वह अपनी पत्नी को अपनी प्रेरणा मानते हैं।

1998 में खोला पहला स्कूल
पहला स्कूल शुरू करने का उनका सपना 1998 में पूरा हुआ। लेकिन, राह इतनी आसान नहीं थी और सफर पूरा करने में कई बाधाएं आईं। उन्होंने कहा, 'मेरा बचपन कोलकाता की सड़कों पर भीख मांगते हुए गुजरा और उसके बाद मैंने रिक्शा चलाना शुरू किया। धीरे-धीरे मैंने टैक्सी चलाना शुरू किया। 1980 से मैं बच्चों के लिए किताबें तथा कपड़ों की व्यवस्था करने में लगा रहता था, ताकि वे स्कूल जा सकें। मैंने युवाओं को गाड़ी चलाना भी सिखाया, ताकि वे अपनी आजीविका चला सकें।' गाजी ने कहा, 'जब मेरी वित्तीय स्थिति थोड़ी मजबूत हुई, तो मैंने एक छोटा सा प्राथमिक स्कूल खोला, जिसमें 16 बच्चे थे। यह उस जमीन (चार से पांच कट्ठा) पर शुरू हुआ, जिसे मैंने खरीदा था। और अधिक जमीन खरीदने के बाद स्कूल का आकार बड़ा हो गया, जो फिलहाल स्कूल सह अनाथालय है।' बाद के वक्त में, जमीनों के दान तथा स्थानीय लोगों तथा यात्रियों के दान से उन्होंने सात कट्ठा जमीन खरीदी, जिस पर दूसरा स्कूल बना।
10वीं तक है स्कूल
उन्होंने कहा, 'दोनों स्कूलों में, बच्चों को चौथी कक्षा तक पढ़ाया जाता था। बाद में हमने एक स्कूल को 10वीं कक्षा तक कर दिया, जिसके लिए पश्चिम बंगाल शिक्षा बोर्ड से मान्यता ली गई। टैक्सी से मेरी आय रोजाना लगभग 450 रुपये है। खाने तथा वाहनों की मरम्मत पर खर्च होने से बचा पैसा स्कूलों में लगाया जाता है।'
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