ताकि आदिवासी महिलाएं समझें माहवारी को मुद्दा, इस संस्थान ने की ये पहल
माहवारी पर बात करना आज भी हमारे समाज में शर्म की बात मानी जाती है। इसके बारे में जानते तो सब हैं लेकिन बात करने में सब झिझकते हैं। शायद यही वजह है कि लड़कियों को भी सही समय पर इसके बारे में सही जानकारी नहीं मिल पाती और वे इसके नुकसान भी उठाती हैं।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NHFS-4) के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 15 से 24 साल की उम्र की केवल 42 फीसदी महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि लगभग 62 फीसदी महिलाएं पीरियड्स के दौरान कपड़े का इस्तेमाल करती हैं।
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इस दौरान गंदे कपड़े का इस्तेमाल करने से महिलाओं में इनफेक्शन और दूसरी कई बीमारियां होने का खतरा रहता है, लेकिन उनमें इसे लेकर जागरूकता ही नहीं है। महिलाओं को माहवारी से जुड़े मुद्दों पर जागरूक करने के लिए महाराष्ट्र के पुणे में ‘समाजबंध’ नाम के एक एनजीओ ने पीरियड्स के दौरान महिलाओं की सुरक्षा व स्वच्छता की दिशा में एक पहल की है।
यह एनजीओ पुराने साफ कपड़ों से सैनिटरी नैपकिन बनाता है और उन्हें आसपास के गांवों में आदिवासी महिलाओं को बांट देता है। ये संगठन इन महिलाओं को सैनिटरी नैपकिन बनाने की ट्रेनिंग भी दे रहा है।
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वेबसाइड newsd के मुताबिक, समाजबंध के फाउंडर, सचिन आशा सुभाष ने साल 2016 में यह पहल शुरू की। कानून की पढ़ाई करने वाले इस पहल को शुरू करने की प्रेरणा उन्हें अपने घर से ही मिली। सचिन की मां को माहवारी के दौरान किस तरह की स्वच्छता बरतनी चाहिए इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए उन्हें इनफेक्शन हो गया और इसका उनके गर्भाशय पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्हें ऑपरेशन से अपना यूटरस निकलवाना ही पड़ा। इसके बाद सचिन ने तय किया कि वह महिलाओं में इस मुद्दे को लेकर जागरूकता फैलाएंगे व ग्रामीण और आदिवासी इलाके की जरूरतमंद महिलाओं को मुफ्त में एक स्वच्छ जीवन जीने का मौका देंगे।
अपने इस नेक काम में मदद के लिए उन्होंने सोशल मीडिया के जरिये और भी लोगों से अपील की। उन्होंने बताया कि उन्होंने महीनों तक पहले रिसर्च की कि ग्रामीण औरतों को किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है। सचिन को इस दौरान अहसास हुआ कि भले ही सैनिटरी नैपकिन सस्ती कीमतों पर बेचे जाएँ, लेकिन महिलाओं को इसे खरीदने में झिझक होगी और उसकी वजह है इस विषय पर लोगों की शर्म।
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इस तरह की हर एक चुनौती का सामना कर पिछले दो सालों में समाजबंध पुणे के आसपास के आदिवासी गांवों में लगभग 2000 महिलाओं तक पहुंचने में सफल रहा है। लोगों में जागरूकता लाने के साथ-साथ उनकी पहल इको-फ्रेंडली भी है। वे पुराने कपड़ों से सैनिटरी नैपकिन बनाते हैं और इन सैनिटरी नैपकिन को अच्छे से धोकर फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है।
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