घर से मस्जिद है बहुत दूर...चलो, यूं कर लें किसी रोते हुए 'बच्चे' को हंसाया जाये...

घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो, यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये... ये लाइन जब निदा फाजली ने लिखी होगी तो उन्होंने भी ये नहीं सोचा होगा इस लाइन में 'बच्चे' की उम्र क्या होगी? आज के समय में सही मायने में इस 'बच्चे' की उम्र 60 पार ही होनी चाहिए..क्योंकि उन्हें ही सबसे ज्यादा इसकी जरूरत है। हमारे समाज के सीनियर सिटिजन जो अपने बच्चों के होते हुए भी 'अनाथ' जी रहे हैं। ऐसे में अगर मौका लगे तो इस तरहे के बच्चे को जरूर हंसाइए... जो एक उम्र के बाद फिर से बच्चा हो जाता है।
आज हम आपको जिस कहानी के बारे में बताने जा रहे हैं, वो इसी तरह के एक प्रयास से जुड़ी है। इस कहानी में इंडियन पुलिस (मुंबई पुलिस) का एक मानवीय चेहरा सामने आता है
25 साल से अकेले रहती हैं ललिता सुब्रमनियम
83 साल की ललिता सुब्रमनियम के दो बच्चे है, एक अमेरिका में और दूसरा बंगलुरु में रहते हैं। खुद ललिता पिछले 25 साल से माटुंगा में स्थित अपने फ्लैट में अकेली रहती है। अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए ललिता ने उनके लिए वो सबकुछ किया जो एक पैरेंट्स करते हैं। लेकिन आज वो खुद पीछे छूट गईं हैं... अब उनके ज्यादातर दिन और त्यौहार अकेले ही गुजरते थे। लेकिन इस अकेलेपन को दूर करने के लिए अब उनके पास एक खास परिवार है और वो है मुंबई पुलिस के कर्मचारी।
आपको बता दें, बुजुर्गो की सुरक्षा की पहल कार्यक्रम के तहत मुंबई पुलिस अकेले रह रहे बुजुर्गो का रिकॉर्ड अपने पास रखती है, जिसमे ललिता का भी नाम शामिल है। इन बुजुर्गो की मदद के लिए मुंबई पुलिस हर संभव प्रयास करती है। महीने भर का सामान लाने से लेके बैंक के काम तक मुंबई पुलिस इन बुजुर्गो का साथ देती है।
मुंबई पुलिस ने ललिता के साथ मनाया जन्मदिन
इस बार भी ललिता के 83वें जन्मदिन पर मुंबई पुलिस केक लेकर उनके घर पहुंच गयी और उनके जन्मदिन का जश्न उनके साथ मना कर उन्हें चकित कर दिया। प्यार से ‘मदर’ पुकारी जानेवाली ललिता के लिए ये बेहद भावुक क्षण था। उन्होंने सभी कर्मचारियों को आशीर्वाद देकर अपनी खुशी का इज़हार किया। इस पुरे जश्न की तस्वीर मुंबई पुलिस ने ट्विटर पर साझा की तथा लोगों से ललिता को शुभकामनाएं देने को भी कहा, जिन्हें वो ललिता तक पहुचाएंगे।
अगर आपके पास भी ऐसा कोई बुजुर्ग अकेले रह रहा हो तो उसको इस तरह की खुशी दे सकते हैं। नहीं कुछ तो आप उनके किसी काम आ जाएं, वो किसी भी परिस्थिति में अकेले रहने पर मजबूर हों, उस कारण के पीछे जाने के बजाय हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम उनको समाज में पूरा सम्मान दें, जिससे कि वो अपनी बची हुई जिंदगी अच्छे से गुजार सकें।
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