मजबूरी ने बनाया भिखारी, अब सिग्नल स्कूल ने दिखाई जीने की राह

महाराष्ट्र के ओस्मनाबाद जिले के सिराधन गांव का मोहन, दो साल पहले एक बेहतर ज़िन्दगी की तलाश में, अपने परिवार के साथ महानगरी मुंबई चला आया। मोहन तब केवल 16 साल का था। क्योंकि सूखे ने खाने का एक निवाला तक नहीं छोड़ा, कर्जे का बोझ बढ़ता गया और इतना बढ़ गया कि तीनों बाप-बेटे ज़िन्दगी भर भी मजदूरी करते तो न चुकता।
ऊपर से एक और मजबूरी... कई साल पहले एक ट्रेन के नीचे आ जाने से मोहन के पिता का एक पांव भी कट चुका था। वे जैसे तैसे एक ही पैर से खेतों में काम किया करते थे। इस वजह से मोहन और उसके भाइयों की पढ़ाई तो कबकी छूट चुकी थी। सातवीं तक पढ़ा मोहन कई बार अपने पुराने पाठ याद कर कर के थक चुका था। वो स्कूल जाना चाहता था, नए पाठ पढ़ना चाहता था, कुछ बनना चाहता था। पर जिस घर में सुबह सूखी रोटी खाने के बाद रात के खाने के लिए एक दाना न बचा हो वहां भला किताबों और स्कूल के बारे में कैसे सोचता।
जब मोहन के पिता ने मुंबई जाने की बात कही तो अनायास ही मोहन की आंखें चमक उठी। उसे लगा कि शायद मुंबई जैसे बड़े शहर में उसके पिता और दोनों भाइयों को इतना तो कमाने को मिल ही जायेगा कि वो एक बार फिर से स्कूल जा सके।
2014 में मोहन के पिता, प्रभु काले ने अपनी ज़मीन और घर बेचकर देनदारों के पैसे चुकाए और खाली हाथ अपने परिवार को लेकर मुंबई चले आये। यहां न घर था न ज़मीन। घर के बदले एक छत मिली। जहां उन्ही के जैसे और भी उजड़े हुए किसान रह रहे थे। इसी फ्लाईओवर के तले मोहन फिर से स्कूल जाने के अपने सपने बुनने लगा। अगली सुबह से काम की तलाश शुरू हुई।
मोहन के पिता जो गांव में एक ही पैर के सहारे सारा खेत जोत देते थे, यहां अपाहिज कहलाये जाने लगे और उन्हें कोई काम देने को तैयार न हुआ। पर परिवार का पेट तो पालना था! सो, इस मेहनती किसान ने हाथ में कटोरा थाम लिया और अपने स्वाभिमान को कुचलकर भीख मांगने लगा। मोहन, उसके दोनों भाई और मां, फूलों के गजरे बना बना कर तीन हाट नाका पर बेचने लगे।
दो साल बीत गए। मोहन अब 18 का हो चुका था। गजरे बेचते-बेचते, वो स्कूल जाने का सपना देखना भूल चुका था। उसने इस सच्चाई के साथ जीना सीख लिया था कि उसे अपनी सारी जिंदगी एक वक़्त का खाना जुटाने में बीत जाएगी। जिस दिन वो गजरे नहीं बेच पायेगा उस दिन उसे भूखे ही सोना पड़ेगा।
लेकिन एक दिन अचानक उसके पास कुछ लोग आये। उन्होंने मोहन से पुछा कि क्या वो पढ़ना चाहता है? ये सुनकर मोहन ने तुरंत हां कह दिया पर साथ ही ये भी बताया कि उसके पास स्कूल जाने, किताबे खरीदने और यूनिफार्म के पैसे नहीं है। यह सुनकर पूछने वाले मुस्कुरा दिए और मोहन का नाम लिख लिया।
कुछ दिन बाद समुद्री जहाज में इस्तेमाल होने वाला एक पुराना कंटेनर तीन हाट नाका फ्लाईओवर के नीचे लाया गया। उसकी मरम्मत की गयी। उसमे छोटा सा बाग बनाया गया, टेबल- कुर्सियां रखी गयी, ब्लैक बोर्ड लगाया गया और मोहन जैसे कई बच्चों को वहां बुलाया गया।मोहन अब जी लगा के पढ़ता है। रोज सुबह पहले वो सिग्नल पर गजरे और फूल बेचता है। फिर जल्दी-जल्दी नहा धोकर स्कूल जाता है। शाम चार बजे स्कूल छुटने पर वो एक बार फिर सिग्नल पर रुकी गाड़ियों के शीशे से गजरे बेचता है। लेकिन अब मोहन को गाड़ियों के शीशे में उसे अपना अक्स दिखाई देता है। सपनों से बुझ चुकी आंखें एक बार फिर से छलक उठी है।
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