कभी मजदूरी कर पाती थीं एक रुपये, आज हैं 250 करोड़ की कंपनी की ओनर
सिर्फ पांच साल की उम्र में अपने पिता को खो देने वाली बच्ची के जीवन में संकट का पहाड़ टूट जाता है। पाबिबेन भी ऐसे ही संकट की मारी थीं। वह अपनी तीन बहनों में सबसे बड़ी हैं। घर की बिगड़ती स्थितियों को देख उन्होंने जिम्मेदारियों की बांहें थाम लीं। परिवार पालने के लिए उन्होंने अपनी मां के साथ घर-घर जाकर काम करना शुरू कर दिया। उम्र कम होने के चलते उन्हें पानी भरने का काम दिया जाता था।
एक रुपया मिलता था मेहनताना
मीडिया से हुई बातचीत में एक बार पाबीबेन कहती हैं, 'जब मेरे पिता की मृत्यु हुई थी तब उस वक़्त मेरी मां गर्भवती थीं। वह हमारा पेट भरने के लिए उसी हालत में परिवार पालने के लिए घरों में काम किया करती थीं। मां के साथ मैं भी लोगों के घरों में काम करने लगी।' वह आगे कहती हैं, 'घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण मुझे चौथी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। 10 वर्ष की उम्र से ही मैं अपनी मां के साथ काम पर जाने लगी थी। मैं लोगों के घर में पानी भरा करती थी जिसके मेहनताने में मुझे एक रुपया मिलता था।'
ऐसे सीखा हुनर
आदिवासी समुदाय डेबरिया रबारी में जन्म लेने वालीं पाबिबेन ने अपनी मां की मदद से पारंपरिक सिलाई-कढ़ाई सिखी। इस समुदाय में यह प्रथा है कि लड़कियों को शादी के बाद दहेज के तौर पर अपने हाथों से सिलाई और कढ़ाई किये हुए कपड़ों को ससुराल ले जाना होता है। उन्हें एक कपड़ा तैयार करने में करीब एक से दो महीने लग जाते हैं। इस कारण उन्हें काफ़ी वक़्त अपने मां-पिता के घर पर रह कर अपनी दहेज की तैयारी करनी पड़ती है। इस समस्या को देखते हुए समुदाय के बुजुर्गों ने इस नियम को समाप्त करने का फैसला किया।
सीखी बारीकियां, बदली तकदीर
इसी बीच पाबिबेन ने साल 1998 में एक संस्था ज्वाइन की जिसे एक एनजीओ की ओर से आर्थिक मदद की जाती थी। उनकी इच्छा थी कि यह कला भी लुप्त न हो और रबारी समुदाय के नियम भी बरकरार रहें इसलिए पाबिबेन ने इसे एक पेशा बना दिया और अपनी सिलाई-कढ़ाई वाली कला को दूसरों तक भी पहुंचा कर इसे बढ़ाना शुरू कर दिया। उन्होंने ट्रिम और रिबन की तरह कपड़ों पर की जाने वाली कड़ाई के लिए एक मशीन एप्लीकेशन की शुरुआत की और उसका नाम हरी-जरी रखा। फिर वह रजाई, तकिये के कवर और कपड़ों पर तरह-तरह के डिजाइनिंग का करने और सीखने लगीं। उस समय उन्हें महीने के 300 रुपये बतौर सेलरी दी जाती थी।
सरकार की ओर से मिला सम्मान
एक समय के बाद उन्होंने यह कलाएं अपनी जैसी अन्य लड़कियों को सिखाने लगीं और आज उन्होंने अपनी टीम में 60 से भी अधिक महिलाओं को रोजगार दिया है। आज उनके द्वारा चलाई जाने वाली पाबिबेन डॉट कॉम नामक वेबसाइट सालाना 20 लाख रुपये की टर्न-ओवर कर रही हैं। उनके बनाए गये डिज़ाइन को अब फ़िल्मी पर्दों पर भी जगह मिल रही है। उनकी मेहनत और काम को देखते हुए सरकार ने उन्हें 2016 में ग्रामीण आंत्रेप्रेन्योर बन कर औरों को मदद करने के लिए ‘जानकी देवी बजाज’ पुरस्कार से नवाज़ा है।
संबंधित खबरें
सोसाइटी से
अन्य खबरें
Loading next News...