गूगल के डूडल में छाने वालीं रूक्माबाई का जानें संघर्ष भरा पूरा जीवन
एक जमाने में जब महिलाओं को निम्न शिक्षा के लिए भी संघर्ष करना पड़ता था तब उन्होंने डॉक्टर की पढ़ाई करके महिलाओं के उत्थान में अहम भूमिका अदा की थी। उस समय देश में अंग्रेजों की हुकूमत चला करती थी। ऐसे में रूक्माबाई का डॉक्टर बनना देश ही नहीं विदेशों में भी सुर्खियों का सबब रहा है। यह देश में महिला सशक्तिकरण का बेहतरीन प्रमाण है।
बाल विवाह का झेला दंश
रूक्माबाई का जीवन संघर्षों से भरा रहा है। जब वह 11 वर्ष की उम्र की थीं तब 19 वर्षीय दुल्हे दादाजी भीकाजी से उनकी शादी कर दी गयी थी। मगर उन्होंने दादाजी के साथ रहने से मना कर दिया। वर्ष 1884 में दादाजी ने पत्नी का साथ पाने के लिए कानूनी दावा पेश किया। बाल विवाह और महिलाओं के अधिकारों पर एक बड़ी सार्वजनिक चर्चा हुई। रुक्मा ने उनकी गरीबी और खराब स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें अस्वीकार कर दिया।
बाल विवाह की वैधता पर उठाए सवाल
उन्होंने 11 बरस की उम्र में हुए विवाह की वैधता पर भी सवाल उठाया। वर्ष 1885 में जजों के निर्णय ने दादाजी के वैवाहिक अधिकारों के सौंपे जाने के दावे को रद्द कर दिया। दादाजी भीकाजी बनाम रूक्माबाई, 1885 को भीकाजी के 'वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना' मांगने के साथ सुनवाई के लिए आया था और न्याय न्यायाधीश रॉबर्ट हिल पिनहे ने निर्णय पारित किया गया था।
ऐसे चुनी डॉक्टर बनने की राह
अपने वैववाहिक जीवन के इन संघर्षों के बाद उनका मन कुछ खिन्न हो गया। फिर उन्होंने अपनी जिंदगी को समाजसेवा से जोड़ने के लिए कुछ नया करने की ठान ली। अंतत: उन्होंने डॉक्टरी के पेशे में जाने का मन बनाया। उन्होंने इसके लिए काफी संघर्ष किया और आखिरकार वह डॉक्टर बन गईं। इसी के साथ उन्होंने गरीबों-मजलूमों और बेसहारा हो चुकी महिलाओं के उत्थान के लिए काम करना शुरू कर दिया। वहीं, अपनी इस उपलब्धि के लिए वह उन्हें दुनियाभर की मीडिया में चर्चा का केंद्र बना दिया।
'द हिंदू' के नाम से लिखती थीं लेख
रूक्माबाई राउत का जीवन उनकी इन्हीं उपलब्धियों से इतर कुछ और भी थी। वह गरीबों के लिए दवाईयां आदि की मदद जुटाने के लिए विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में 'द हिंदू' नाम से लेख भी लिखा करती थीं। उन्होंने लोगों से चिकित्सा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए एकजुट होने की अपील की। उनकी इस मुहिम को लोगों ने भी कुछ समय के बाद अपना लिया। वह देखते ही देखते देशभर में मशहूर होती गईं। और इस तरह उन्होंने अपना सर्वस्व जीवन समाज को समर्पित कर दिया।
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