पहली बार भारतीय सेना में देसी डॉग्स, बम ढूंढ़ने में हैं माहिर

कश्मीर के अवंतिपुर, राजौरी और अखनूर में आजकल सेना का हेलिकॉप्टर बिना इनकी इजाजत के उड़ान नहीं भरता है। रोड ओपनिंग पार्टी जब मिशन पर निकलती है तो पहले आगे-आगे 10 किमी तक पैदल मार्च करते हुए ये जाते हैं और हर कदम पर जवानों को क्लीयरेंस देते हैं।
यहां बात हो रही है पहली बार भारतीय सेना में शामिल हुए मुधोल नस्ल के देसी कुत्तों की। ये इतने जबरदस्त हैं कि हेलिपैड सर्च करते हैं और मीलों तक विस्फोटक खोजते हुए चले जाते हैं। जिन इमारतों में आतंकी छिप जाते हैं, वहां पर भी सबसे पहले आगे जाकर विस्फोटक ढूंढते हैं।
58 साल के इतिहास में पहली बार
मेरठ स्थित थल सेना की रिमाउंट वेटनरी कोर (आरवीसी) के 58 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब देसी नस्ल के खोजी कुत्ते पर भरोसा किया गया है। कर्नाटक के मुधोल गांव से ये मुधोल हाउंड यानी शिकारी डॉग को जर्मन शेफर्ड व लेब्राडोर जैसी विदेशी नस्ल के डॉग की तरह दक्ष किया जा रहा हैं।
विदेशी कुत्तों से हैं अलग
आरवीसी डॉग ट्रेनिंग के सीनियर इंस्ट्रक्टर कर्नल जयविंद्र सिंह बताते है कि इनकी शारीरिक बनावट ही इन्हें विदेशी डॉग्स से अलग करती हैं। ये बिना थके व बिना हांफे लगातार दस किमी तक सर्च ऑपरेशन करने में सक्षम हैं। जबकि विदेशी नस्ल में ये क्षमता ज्यादा नहीं होती है।
चीते की तरह चाल
इन्हें एक बार विस्फोटक सर्च करने के लिए लॉन्च कर दो तो ये उसे ढूंढकर ही दम लेंगे। सबसे बड़ी खूबी ये है कि विस्फोटक मिलने के बाद ये भौंकेंगे नहीं, उसके पास बैठ कर हैंडलर को इशारा करेंगे। दूसरा इसमें दौड़ने की क्षमता शिकारी की तरह हैं।
युद्ध में किया जाता था इस्तेमाल
कर्नाटक के बागलकोट जिले के मुधोल तहसील में सदियों से पाई जाने वाली डॉग की यह पहली ऐसी नस्ल है जो मराठों के समय शिकार और युद्ध के दौरान लड़ाकों की तरह इस्तेमाल किए जाते थे। अब कर्नाटक का केनाइन रिचर्स इंफोर्मेशन सेंटर (सीआरआईसी) इस नस्ल का बेहतर प्रजनन के साथ ट्रेंड करने में जुटा है।

फसलों की सुरक्षा भी करते हैं
इस क्षेत्र के किसान अपनी फसलों की सुरक्षा के लिए इनका उपयोग कर रहे हैं। इनकी दक्षता देखकर सेना मेक इन इंडिया प्रोग्राम के तहत केनल क्लब ऑफ इंडिया में रजिस्टर्ड मुधोल हाउंड को पहली बार मार्च 2016 में कर्नाटक से मेरठ लाई। इस नस्ल के 8 डॉगी आरवीसी मेरठ में ट्रेनिंग के लिए लाए गए थे।
'टी सीरिज डॉग्स'
नौ माह के इन डॉग्स को यहां लाते ही नामकरण किया। इनमें टनू, टार्जन, टाइगर, तांसी, टीना, तरूण, तरक व टैग नाम दिया गया। सभी के नाम टी से शुरू होने के कारण आरवीसी में इन्हें 'टी सीरिज डॉग्स' के नाम से बुलाया जाता है। बिना भौंके किसी शिकार की तरह विस्फोटक पर झपट्टा मारने वाले मुधोल साइलेंट किलर हैं। ये डॉग्स गत तीन माह से एलओसी पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर रहे हैं।
60 से 70 किमी प्रति घंटे की रफ्तार
आगे इन्हें विदेशी नस्ल के डॉग की तरह घातक व ट्रेकर भी बनाया जाएगा। मेरठ में अगस्त 2016 में इनकी 36 सप्ताह की ट्रेनिंग शुरू हुई। इनकी दौड़ने की रफ्तार करीब 60 से 70 किमी प्रति घंटे की है। इन्हें सबसे पहले एक्स्प्लोसिव डिटेक्शन यानी विस्फोटक खोजने की ट्रेनिंग दी गई। ये जर्मन शेफर्ड व लेब्राडोर से सूंघने में बेहतरीन पाए गए हैं।
कश्मीर में तैनात
करीब नौ माह तक विस्फोटक खोजने तथा कश्मीर में रोड ओपनिंग पार्टी के लिए दक्ष किया गया। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद 4 मुधोल डॉग को कश्मीर के अवंतिपुर, राजौरी तथा अखनूर में तैनात किया गया है। यहां पर इन्हें माइनस तापमान में इनका सुटेबिलिटी तथा ऊंचे टरेन में टेस्ट हो रहा है।
एलओसी पर भेजे गए
सीनियर इंस्ट्रक्टर कर्नल जयविंद्रसिंह बताते हैं कि एलओसी पर भेजे गए चारों डॉग की क्षमता को परखा जा रहा है। इनका वहां के तापमान और भौगोलिक स्थितियों के हिसाब से टेस्ट हो रहा है। सुटेबिलिटी टेस्ट में इनके सफल होने के बाद इन्हें मल्टी स्पेशिलिटी डॉग बनाने की तैयारी की गई है। आरवीसी में जर्मन शेफर्ड व लेब्रा डॉग की तरह इनकी ब्रीडिंग शुरू कर इन्हें हमला करने तथा ट्रेकिंग में दक्ष किया जाएगा।
जीतने के लिए हुए पैदा
कर्नल जयविंद्रसिंह कहते हैं कि 'बोर्न टू विन' यानी सिर्फ जीतने के लिए जन्मे ये देसी नस्ल के डॉग्स बिना भौंके ही अपने शिकार की तरफ झपटते हैं। इन्हें कंट्रोल करने के लिए चेन नहीं बांधनी पड़ती है। ये अपने हैंडलर व ट्रेनर के इलेक्ट्रॉनिक कॉलर व क्लिकर से इशारा पाते ही चीते की तरह दौड़ पड़ते हैं।
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