पुण्यतिथि विशेष : ग़ालिब के नाम पर लोग कमा रहे हैं करोड़ों रुपये

27 दिसंबर 1769 को जन्मे ग़ालिब ने उस ज़माने में ऐसी शायरी लिख दी थी जिससे आज भी लोग पैसा कमा रहे हैं। ग़ालिब के हुनर को किताबों की शक्ल देने वाले लोग करोड़पति बन गए, तो वहीं तमाम वेबसाइट्स भी ऐसी हैं जिनपर लोग उनकी शायरी पढ़ने आते हैं। इन वेबसाइट्स को गूगल से हिट्स के हिसाब से अच्छा पैसा मिलता है। आखिर क्यों? यह सब बस इसलिए कि मिर्ज़ा जब अपने लिखे शेर पढ़ते थे तो बादशाह भी अपनी गदृी पर बैठना भूल उनकी शायरी में खो जाते थे, तो हम उनके दीवाने न हों ऐसा कैसे हो सकता है? वैसे तो कई मशहूर शायर हुए हैं लेकिन ग़ालिब की शायरी ऐसी है कि जब लोगों के दिलों पर एक बार इसका सुरूर चढ़ता है फिर उसकी खुमारी नहीं उतरती। मिर्ज़ा ने ख़ुद अपनी तारीफ में लिखा है...
‘हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि गालिब का है अन्दाज-ए-बयां और’
मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी की यह ख़ासियत है कि उन्होंने ज़िंदगी के हर मौज़ू पर शेर लिखा है। उनके शेर में अगर मोहब्बत है तो दर्द भी, पास आने की खुशी है तो दूर जाने का ग़म भी, दुनिया की बुरी तस्वीर है तो अच्छी भी।
इश्क़ में डूब कर उन्होंने अगर ये शेर लिखा...
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
तो दिल के दर्द को बयां करता ये भी
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमां मगर फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा का पूरा नाम पूरा नाम असद-उल्लाह बेग खां था और ग़ालिब उनका तख़ल्लुस था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उनके दादा मिर्ज़ा कोबान बेग खान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आए थे। उन्होंने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गए। ग़ालिब की शुरुआती शिक्षा के बारे में स्पष्टतः कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन मिर्ज़ा के अनुसार उन्होंने 11 वर्ष की उम्र से ही उर्दू एवं फारसी में गद्य तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिया था। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। मिर्ज़ा के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज्म-उद-दौला का खिताब मिला है। ग़ालिब मुग़ल काल के आखिरी शासक बहादुर शाह ज़फर के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िंदगी गुज़ारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों के लिए याद किया जाता है।
मुगलों के पतन के बाद अंग्रेजों के शासन में मिर्ज़ा ग़ालिब के आखिरी दिन कठिनाई में गुजरे। आज ही के दिन यानी 15 फरवरी 1869 को दिल्ली के बल्लीमरान में उनकी हवेली पर ही उनकी मौत हो गई। अपने अंतिम दिनों में ग़ालिब जिस हवेली में रहते थे उसे ग़ालिब की हवेली नाम दिया गया और यह आज यह ग़ालिब का संग्रहालय बन चुका है।
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