परिवार ने नहीं दिया साथ, झुग्गी में रहकर पास की सिविल की परीक्षा

आपने सफलता की तो बहुत कहानियां पढ़ी होंगी, अभी हाल ही में सिविल सर्विसेज का रिजल्ट आया जिसमें आपको हर तरह की कहानियां पढ़ने को मिली होंगी। ज्यादातर कहानियों में परिवार और दोस्तों का अमूल्य साथ होता है जिससे अभ्यर्थी सफलता को पा सका। लेकिन हम आपको आज एक ऐसी कहानी बताने जा रहे हैं, जहां मां-बाप ने अपनी बच्ची को सिर्फ 14 साल की उम्र में घर से निकाल दिया और उसने आज अपने पहले ही प्रयास में सिविल सेवा की परीक्षा पास कर ली है।
यह कहानी है, मूलत: राजस्थान की रहने वाली उम्मुल खेर की। कहानी पर आने से पहले हम आपको बता दें, उम्मुल 5 साल की उम्र से ही हड्डियों की समस्या (fragile bone disorder) से जूझ रही हैं। मतलब कि मुसीबतें उनका साथ बचपन से ही दे रही हैं!
क्या है ये बिमारी?
उम्मुल अजैले बोन डिसऑर्डर बीमारी के साथ पैदा हुई थी, एक ऐसा बॉन डिसऑर्डर जो बच्चे की हड्डियां कमज़ोर कर देता है। हड्डियां कमज़ोर हो जाने की वजह से जब बच्चा गिर जाता है तो फ्रैक्चर होने की ज्यादा संभावना रहती है। इस वजह से 28 साल की उम्र में उम्मुल को 15 से भी ज्यादा बार फ्रैक्चर का सामना करना पड़ा है।
ये है उम्मूल की कहानी
खैर, हम आपको बताने जा रहे हैं, 28 साल की उम्मुल कैसे अपने पहले ही प्रयास में सिविल सेवा की परीक्षा पास कर 420 रैंक लाने में कामयाब हुई हैं। बेहद गरीब परिवार में जन्म लेने वाली उम्मूल जब 5 साल की थीं तो उनके पिता राजस्थान छोड़ कर दिल्ली चले आए, यहां आकर वो गलियों में घूम-घूम कर कपड़े बेचकर अपने परिवार के साथ झुग्गियों में रहने लगे। उस समय तक उम्मुल अपनी बिमारी के कारण 16 फ्रैक्चर और 8 सर्जरी से गुजर चुकी थीं।
उम्मुल जब स्कूल में थी तब उनकी मां का देहांत हो गया। उम्मुल की सौतेली मां के साथ उम्मुल का रिश्ता अच्छा नहीं था। उम्मुल की पढ़ाई को लेकर घर में रोज़ झगड़ा हुआ करता था। अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उम्मुल अपने घर से अलग हो गई तब वो नवीं क्लास में थी। त्रिलोकपुरी में एक छोटा सा कमरा किराया पर लिया।
अपने खर्चे के लिए उम्मुल आसपास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। झुग्गियों में एक लड़की का अकेले रहना बेहद चुनौतीपूर्ण था, इस चुनौती को उम्मूल ने स्वीकार किया और हालात से लड़ते हुए आगे बढ़ती रहीं।
गार्गी कॉलेज में लिया एडमिशन
12वीं में उम्मूल खेर के 91 फीसदी नंबर आए जिसके बाद उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कॉलेज में एडमिशन मिल गया। हालांकि यहां पर उनको रहने के लिए काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। इसके लिए उम्मुल ने डिबेट प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू किया और उसे जीतकर अपनी जिंदगी चलानी शुरू कर दी। उम्मुल जब गार्गी कॉलेज में थी तब अलग-अलग देशों में दिव्यांग लोगों के कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 2011 में उम्मुल सबसे पहले ऐसे कार्यक्रम के तहत दक्षिण कोरिया गई। दिल्ली यूनिवर्सिटी में जब उम्मुल पढ़ाई करती थी तब भी बहुत सारे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी।
डीयू के बाद JNU में लिया एडमिशन और JRF किया क्वालीफाई
इस बीच 2012 में उनकी बिमारी ने एक बार फिर उनको परेशान करना शुरू कर दिया जिसकी वजह से उन्हें करीब 1 साल तक व्हीलचेयर पर गुजारना पड़ा। और वो आगे बढ़ती रहीं। इसके बाद उम्मुल ने देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय JNU में master’s in International Studies में एडमिशन लेने में सफलता पाई जहां उन्हें स्कॉलरशिप के तौर पर 2000 रुपये मिलने लगे। जबकि 2013 में वो Junior Research Fellowship (JRF) क्वालीफाई करने में कामयाब हुईं और उन्हें 25 हजार रुपये महीने के मिलने लगे।
अपनी इसी लगन और मेहनत के दम पर उम्मुल ने अपने पहले ही प्रयास में सिविल सेवा की परीक्षा पास कर ली। हालांकि उनकी रैंक 420 है लेकिन वो दिव्यांग कोटे से आईएएस की पोस्ट पा सकती है।
कहां है उनका परिवार और क्या सोचती है उम्मुल?
उम्मुल के इस संघर्ष में उनके परिवार ने उनका साथ नहीं दिया, ये तो आप जान ही चुके हैं। लेकिन अब उम्मुल उनके बारे में क्या सोचती है.. जानते हैं? उम्मूल से नाता तोड़ने के बाद उनका परिवार वापस राजस्थान चला गया, वहां जाकर उनके भाई ने एक दुकान खोल ली जिससे कि उनका खर्चा चलता है। आपको जानकर हैरानी होगी, उम्मूल को अपने परिवार से कोई शिकायत नहीं है। वो अब अपने परिवार के संपर्क में हैं, उम्मुल का मानना है कि उनका परिवार जितना सोच सकता था, जितनी दुनिया उन लोगों ने देखी थी उसके हिसाब से उन लोगों ने ठीक किया। ईश्वर उम्मुल को आगे भी सफलता देते रहें, यहीं हमारी कामना है।
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