प्रकृति का 'कर्ज' उतारने के लिए शहर से 'जैविक गांव' में बस गया यह परिवार

तेजी से विकसित होने की राह पर चल रहे अपने देश में आज हर नागरिक अपने आपको उस दौड़ में शामिल करने के लिए लगा हुआ है। आज गांव से लोग विकसित होने के नाम पर शहरों की तरफ भाग रहे हैं। हालांकि ये सच्चाई भी है आज शहरों में जो सुविधाएं (शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य जरूरी चीजें) हैं वो गांवों में अभी तक नहीं पहुंच पाई है। इसलिए लोग थोड़ी परेशानियां सहते हुए शहरों में रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। इसका दूसरा पहलू ये है कि इस वजह से शहर जनसंख्या विस्फोट और प्रदूषण की गिरफ्त में आ चुके हैं।
आप सोच रहे होंगे इन घटनाओं को आज की कहानी से क्या कनेक्शन है, तो हम आपको बता दें ये कहानी उसी विकास की राह पर चलने की है। ये अलग बात है इस कहानी का किरदार गांव से शहर नहीं बल्कि शहर से गांव जाने वाला है। इस कहानी में गजब की हरियाली है और प्रकृति से असीम प्यार है।
शहर की भागदौड़ से किया तौबा
केरल की रहने वाला रुक्मिणी चावड़ा (एक नर्सिंग कॉलेज की पूर्व प्रधानाध्यापिका) ने अपने पति मोहन चावड़ा और बच्चों के साथ शहर से दूर गांव में रहने का फैसला किया। इस गांव की खासियत यह है कि यह केरल के पालक्काड़ जिले में पहला जैविक गांव है।
मोहन चावड़ा का परिवार केरल के पालक्काड़ जिले में उभरते इस जैविक गांव का पहला निवासी है। चावड़ा परिवार की कल्पना पर आधारित यह गांव ढाई एकड़ के प्राकृतिक ग्रामीण क्षेत्र के बीच में और मन्नंनूर रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूरी पर बसा हुआ है।
कैसे आया ख्याल और कब बना ये गांव
मोहन चावड़ा और उनकी पत्नी रुक्मिणी ने बहुत समय से एक सपना संजोया था कि वो एक ऐसे लोगों का समुदाय बनाना चाहते हैं जो पूरी तरह पर्यावरण अनुकूलित और हरित जीवन जीने को समर्पित हो। 2013 में उन्होंने अपनी ही तरह सोच रखने वाले 14 परिवारों से अपने लिए एक स्व-निर्वाहित जैविक गांव बनाने की बात की। वे सब प्रदूषण, और शहर की भागदौड़ से दूर प्रकृति की गोद में एक नया और स्वस्थ जीवन जीना शुरू करना चाहते थे।
इन लोगों ने मिलकर भरतपुजा नदी के किनारे की खूबसूरत ढाई एकड़ जमीन खरीदी जहां उन्होंने अपना जैविक गांव बनाया। यहां पहले एक रबड़ बागान हुआ करता था। उनके ग्रुप ने शुरुआत उन रबड़ के पेड़ों को काटने और हटाने से की जो मिट्टी के लिए हानिकारक थे। फिर फलदार पेड़ और सब्जी के बगीचे लगाने से पहले उन्होने अपने ही हाथों से अपना एक ट्री-हाऊस बनाया। 2015 में मोहन, रुक्मिणी और उनकी दो बेटियां, 18 वर्षीय सूर्या और 11 वर्षीय स्रेया इस उभरते गांव में रहने आ गए, ऐसा करने वाला मोहन का पहला परिवार था।
गेस्ट हाउस भी बनाया
मोहन चावड़ा के इस प्रयोग को देखने के लिए लोग दूर दूर से आने लबे। इसलिए चावड़ा परिवार और बाकी सभी परिवारों ने मिल कर एक गेस्ट हाउस और एक बड़ा सामुदायिक किचन (रसोईघर) बनाना तय किया, जहां सब मिलकर पका और खा सके। इन परिवारों ने कलाकारों, कार्यकर्ताओं और पड़ोसी गांवों के लोगों को भी गां व में आयोजित होने वाले साप्ताहिक कला सम्मेलनों में आमंत्रित करने की योजना बनाई है।
व्यवसाय भी करने लगे
हाल ही में, चावड़ा परिवार ने छत डालने के लिए थोड़ी बाहरी मदद लेकर, अपने लिए एक साधारण सा कच्चा मकान बनाना शुरू किया। फल, सब्जियां और दालें लगाने के अलावा चावड़ा परिवार गाय, बकरियाँ और मुर्गी पालन भी करता है। गांव में आने वाले हर मेहमान का स्वागत रुक्मिणी द्वारा जैविक बगीचे की ताजा पैदावार से बनाए स्वादिष्ट खाने से होता है। शाम का खाना अक्सर स्थानीय सुरीले गीतों और उत्साहपूर्ण कला चर्चा के साथ होता है।
बच्चों ने स्कूल छोड़ प्रकृति से सीखना शुरू किया
चावड़ा परिवार का मानना है कि प्रेम, मानवता और दया जैसी भावनाओं के बारे में हम नियमित स्कूलों के बजाय प्रकृति के बीच रहकर ज्यादा सीख सकते हैं। यही कारण है कि मोहन चावड़ा की बेटियां स्रेया और सूर्या स्कूल छोड़कर यह प्राकृतिक जीवन जी रही है। सूर्या अपनी क्लास की टॉपर थी जब उसने आठवीं में स्कूल छोड़ा, लेकिन वह इस वैकल्पिक और अनौपचारिक शैक्षिक पद्धति के साथ ज्यादा सहज और खुश हैं । दूसरी तरफ स्रेया डिस्लेक्सिया से ग्रसित है। उसके शिक्षक हमेशा उसकी क्षमताओं को समझने और उनके साथ काम करने में असमर्थ रहे, लेकिन इस जैविक गांव ने उसके सामने इतनी राहें खोल दी है कि वह धीरे-धीरे विकसित हो रही है।
अपने पिता से सीखकर सूर्या और स्रेया मूर्तियां बनाने और दूसरी कलाओं में भी काफी कुशल हो गई है। अपनी सृजनात्मकता को माता-पिता द्वारा हौसला बढ़ाने के चलते, दोनों बहनों ने अपने कच्चे मिट्टी के मकान की दीवारें मूर्तियों और तस्वीरों से सजा दी हैं। शहर की भागमभाग से दूर एक शांत जगह बसाकर, मोहन चावड़ा ने अपने प्रयासों से गांव को पारंपरिक वन्य-जीवन और कलात्मक रचना का आकर्षक मिश्रण बना दिया है।
मोहन उतार रहे हैं प्रकृति का कर्ज
मोहन चावड़ा की कहानी हमारे समाज के लिए सीख है कि वो भी अपने प्रकृति को वो चीजें लौटाएं जो हमे उससे मिली है। आप सबको पता होगा ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से हमारी पृथ्वी लगातार गर्म हो रही है। जिससे मौसम में असंतुन बन रहा है और हम धीर-धीरे विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। अगर हम जल्द ही नहीं चेते तो वो दिन दूर नहीं जब हमें सांस लेने के लिए शुद्ध हवा के लिए तरसना पड़ेगा। हमे मोहना चावड़ा और उन जैसे लोगों से सीख लेनी चाहिए।
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