बिना अंगुलियों वाले हाथों से अपनी किस्मत लिखने वाले मोची की कहानी

एकलव्य के बारे में तो आप लोग जानते ही होंगे! एकलव्य अपने समय के बेहतरीन धनुर्धर (तीर-धनुष चलाने वाले) थे, जो उस समय के सबसे बड़े गुरु माने जाने वाले द्रोणाचार्य की मूर्ति रखकर अपनी शिक्षा ली थी। क्योंकि द्रोणाचार्य ने उन्हें धर्नुविद्या सिखाने से मना कर दिया था।
महाभारत की कहानी के मुताबिक गुरु द्रोणाचार्य के शिष्य अर्जुन को एकलव्य परास्त न कर दे इसलिए द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा ही मांग लिया। एकलव्य ने खुशी-खुशी अपना अंगूठा दान कर दिया। इतिहास आज भी एकलव्य की दानवीरता और तीर-धनुष चलाने में निपुणता के लिए उन्हें याद करता है।
खैर! आप सोच रहे होंगे, कहां मैं महाभारत की कहानी लेकर बैठ गया। दरअसल आज की जो कहानी है वो इस कहानी से काफी हद तक मेल खाती है। इस कहानी में अर्जुन, द्रोणाचार्य और एकलव्य सीधे-सीधे तो नहीं हैं पर हालात कुछ वैसे ही हैं।
अब कहानी पर आते हैं... यह सच्ची कहानी दिल्ली की है। दिल्ली में रहनेवाले 39 वर्षीय दिनेश पेशे से मोची है और दिल्ली के द्वारका इलाके के एक सड़क के किनारे बैठकर पिछले बीस सालों से अपना काम कर रहे है। वो अपना काम इतनी शिद्दत से करते हैं कि ज्यादातर लोगों को उनके हाथों पर नजर ही नहीं जाती जो ये देख पाएं कि दिनेश की अंगुलियां ही नहीं है। जी हां! दिनेश के हाथों में एक भी अंगुली नहीं है फिर भी वो मोची जैसा काम, जहां पूरा खेल अंगुलियों का ही है वो बेहद आसानी से कर लेते हैं।
अंगुली काटने के अलावा कोई रास्ता नहीं था
हालांकि जब वो अपनी अंगुलियों की बात करते हैं तो आज भी सिहर उठते हैं। आज से करीब 15 साल पहले दिनेया बिहार में अपने ससुराल गए थे। वहां उन्हें बुखार हुआ, जहां उन्हें एक डॉक्टर ने कुछ दवाएं दी, वो दवाईयां गलत निकलीं और उसके दुष्परिणाम से दिनेश के हाथो में छाले पड़ गए और जल्द ही सारी उंगलियां छालों से भर गयी। दिनेश को बताया गया कि यदि ये छाले इसी तरह फैलते रहे तो उन्हें अपने हाथ गंवाने पड़ सकते है। इस समय दिनेश ने एक दूसरे डॉक्टर की मदद ली जिन्होंने उन्हें अपना हाथ बचाने के लिए उनकी उंगलियाँ काटने की सलाह दी। इसके बाद दिनेश के पंजों से वो उंगलियां जा चुकी थी जिनसे वे लोगों के जूते, चप्पल ठीक कर करके अपने परिवार की रोजी रोटी कमाते थे।

दिनेश को और कुछ नहीं आता था
आपको बता दें, दिनेश का परिवार 1990 में बिहार के से रोज़गार की तलाश में दिल्ली आया था। उनके पिता भी एक मोची थे और उन्होंने शुरू से दिनेश को इस काम के सारे गुर सिखा दिए थे। 10 साल की उम्र से अपने परिवार की मदद कर ने के लिए दिनेश यह काम कर रहा है। फिर अचानक उंगलियां न होने की वजह से वह इस काम को कैसे छोड़ देता। दिनेश बताते हैं कि मुझे अपने परिवार का पेट पालना था, इसलिए वो ये काम किसी तरह बिना अंगुलियों के करते हुए अपने परिवार को पालने के लिए दिन रात काम करने लगे। सुबह से लेकर शाम तक काम कर वे किसी तरह महीने का 15000 रुपये कमा लेते है जिनसे उनका घर चलता है।
मिसालें ऐसे ही बनती हैं
आप सोच रहे होंगे, ये तो दिनेश की किस्मत होगी! उन्हें बेहतर डॉक्टर नहीं मिला तो उनकी अंगुलियां काटनी पड़ी, वो अनपढ़ था तो और कोई काम नहीं कर सकता इसलिए उसे मोचीगिरी ही करनी पड़ी। आप जो भी सोचिए, लेकिन ये तो आप भी मानेंगे दिनेश अगर चाहते तो दिल्ली जैसे शहर में अपनी सभी अंगुलियां गवां देने के बाद आसानी से भिखारी का काम कर सकते थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी बिना अंगुलियों वालों हाथों से अपनी किस्मत लिखी और सम्मान से अपना और अपने परिवार की जिंदगी पाल रहे हैं। आपके आसपास भी ऐसी ही कई मिसाले हैं जिसे हम और आप देखते तो हैं पर समझ नहीं पाते हैं। ऐसा नहीं कि आप दिनेश के लिए कोई सिम्पैथी रखें लेकिन अगर आप उनसे प्रेरणा ले सकते हैं तो आप जरूर लें। क्योंकि अगर आप निराश है तो यह दवा का काम करेगा और नहीं भी हैं तो आपके जीवन में टॉनिक का काम करेगा।
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