भिखारी को दी सबसे बड़ी दौलत, आज विदेशों में कर रहे हैं पढ़ाई...

अगर आप जीवन में किसी गरीब की सहायता करना चाहते हैं तो उसे पैसे, रुपये न देकर शिक्षा की दौलत देने की कोशिश करें। क्योंकि इससे बड़ी दौलत शायद दुनिया में कोई नहीं है।
आज हम आपको इसी दौलत के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे एक दंपति ने बांटकर कई गरीब बच्चों की जिंदगी संवार दी है। ये कहानी है, चेन्नई के एक दंपति की। इस दंपति ने अब तक करीब 300 से ज्यादा गरीब बच्चों को नई जिंदगी दी है।
इस दंपति द्वारा जिंदगी बदलने वाली एक कहानी
जयवेल का जन्म चेन्नई में हुआ, उनके माता-पिता आंध्र के नेल्लोर गांव के किसान थे। घर की हालत ठीक न होने की वजह से वो कर्ज में डूबते गए जो वे चुका नहीं सके। उसके बाद उन लोगों ने अपनी अपनी जमीन बेच काम की तलाश में शहर आ गए। काम नहीं मिलने की वजह से उन लोगों ने भीख मांगकर गुजारा करना शुरू कर दिया।
जयवेल भी अपनी 3 बड़ी बहनों और एक छोटे भाई के साथ भीख मांगने लगे। उनके परिवार की बदनसीबी यहीं नहीं थमी। जयवेल जब 3 साल के थे, उनके पिता चल बसे। उनकी मां ने शराब पीना शुरू कर दिया, जिसकी वजह से उन्होंने अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दिया। इस बीच 1999 में जयवेल की मुलाकात उमा और मुथुराम से हुई।
ऐसे बदल गई जयवेल की जिंदगी
सुयम चेरीटेबल ट्रस्ट के संस्थापक उमा और मुथूराम चेन्नई की गलियों के बच्चों की हालत पर ध्यान दे रहे थे जब वे जयवेल से मिले और उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया। जयवेल और उनके भाई-बहनों को 'सिरगू मोंटेसरी' में दाखिल कराया गया, जो कि सुयम चेरीटेबल ट्रस्ट द्वारा वंचित बच्चों के लिए चलाया जा रहा स्कूल है।
इसके बाद जयवेल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सर्वश्रेष्ठ नंबरों से बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद, जयवेल ने प्रतिष्ठित कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की प्रवेश परीक्षा दी। आज 22 वर्षीय जयवेल 3 साल का 'परफॉर्मेंस कार एनहांसमेंट टेक्नोलॉजी इंजिनियरिंग' का कोर्स ग्लिनड्वर यूनिवर्सिटी, व्रेक्सहैम, यूके से पूरा कर चुके हैं।
50 बच्चों को दिलाई है उच्च शिक्षा
उमा और मुथूराम ने सिर्फ जयवेल की जिंदगी नहीं बदली हैं। गरीबी रेखा से नीचे वाले कम से कम 50 ऐसे बच्चे हैं जिन्हें उनके कारण उच्च शिक्षा मिल पायी है और ऐसे 250 भिखारी परिवार हैं जो इनके ट्रस्ट की वजह से वापस अच्छी दशा में आ गए हैं।
उमा और मुथूराम की कहानी
उमा और मुथूराम ने पहली क्लास से एक साथ पढाई शुरू की, उन्हें कभी अंदाजा नहीं था कि भविष्य में वे जीवन-साथी बन जाएंगे। उमा की यात्रा शुरू हुई जब वे महज 12 साल की थी। उमा की मां एक सरकारी स्कूल की अध्यापिका थी, जिस कारण उमा को झुग्गी के बच्चों से मिलने का मौका मिला। तेज और होशियार बच्ची उमा ने इन बच्चों को गणित पढ़ाना शुरू कर दिया। मुथूराम और कुछ और दोस्तों ने भी इस नेक काम में मदद की।
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