कौन थे मुग़लों को धूल चटाने वाले लचित बोरफुकन?

प्रसिद्ध असमिया जनरल और लोक नायक लचित बोरफुकन की 400 वीं जयंती का तीन दिवसीय उत्सव 23 नवंबर को नई दिल्ली में शुरू हुआ। 24 नवंबर को लचित बोरफुकन की जयंती मनाई जाती है। इस समारोह में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सहित कई हस्तियों ने हिस्सा लिया।
पिछले हफ्ते, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने अहोम जनरल की 400वीं जयंती के उत्सव के दौरान गायक जुबिन गर्ग द्वारा रचित एक थीम गीत भी जारी किया था। सरमा ने कहा कि यह गीत 'महाबीर' लचित के बलिदान के लिए एक श्रद्धांजलि थी, और आशा व्यक्त की कि यह लोगों के बीच "राष्ट्रवादी उत्साह" को बढ़ावा देगा।
इस साल की शुरुआत में, तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गुवाहाटी में एक युद्ध स्मारक का उद्घाटन किया था और लचित बोरफुकन की 150 फुट की कांस्य प्रतिमा की आधारशिला रखी थी। तो चलिए जानते हैं कि लचित बोरफुकोन कौन थे, और वह असमिया राष्ट्रवाद के किस्से में क्यों महत्वपूर्ण हैं?
अहोम साम्राज्य का इतिहास
अहोम राजाओं ने 13वीं सदी की शुरुआत से लेकर 19वीं सदी की शुरुआत तक लगभग 600 वर्षों तक एक बड़े हिस्से पर शासन किया। इस हिस्से को अब असम के नाम से जाना जाता है। यह एक समृद्ध, बहु-जातीय साम्राज्य था जो ब्रह्मपुत्र घाटी के ऊपरी और निचले इलाकों में फैला हुआ था। यहां के लोग अपनी उपजाऊ भूमि में चावल की खेती पर जीवन यापन करते थे।
1615 से 1682 के दौरान जहांगीर के शासनकाल से लेकर औरंगजेब के शासनकाल तक अहोम और मुगलों के बीच कई संघर्ष हुए। प्रमुख प्रारंभिक सैन्य संघर्षों में से एक जनवरी 1662 में हुआ था, जहां मुगलों ने आंशिक जीत हासिल की, असम के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की और अहोम राजधानी गढ़गांव पर कब्जा कर लिया।
अहोम राजा स्वर्गदेव चक्रध्वज सिंह के संरक्षण में खोए हुए अहोम प्रदेशों को दोबारा हासिल करने के लिए मुग़लों से फिर लड़ाई शुरू हुई। इस लड़ाई में शुरुआती जीत अहोमों की हुई। इसके बाद औरंगज़ेब ने 1669 में जयपुर के राजा राम सिंह प्रथम को खोए हुए हिस्से को फिर से हासिल करने के लिए भेजा और फिर 1671 में सरायघाट की लड़ाई हुई।
लचित बोरफुकन की कहानी
लचित एक शानदार सैन्य कमांडर थे, जो ब्रह्मपुत्र घाटी और आसपास की पहाड़ियों के इलाके को अच्छी तरह जानते थे। उन्हें राजा चरध्वज सिंहा ने अहोम साम्राज्य के पांच बोरफुकनों में से एक के रूप चुना था और प्रशासनिक, न्यायिक और सैन्य जिम्मेदारियां दी थीं। मुगलों के विपरीत, जो अपनी विशाल सेनाओं के साथ खुले में लड़ाई करना पसंद करते थे, बोरफुकन ने गुरिल्ला रणनीति को प्राथमिकता दी। इसने उनकी छोटी, लेकिन तेजी से आगे बढ़ने वाली और सक्षम सेना को बढ़त पहुंचाई। मराठवाड़ा में मुगलों के साथ शिवाजी की मुठभेड़ों की तरह, लचित ने बड़े मुगल शिविरों और स्थिर पदों को नुकसान पहुंचाया। उनके आक्रमणों से बेफिकर मुग़ल सैनिक मारे जाते थे।
जब मानसून आया, तो मुगलों की योजनाएं जटिल हो गईं। मुग़ल अलाबोई की तलहटी के आसपास सफलतापूर्वक डेरा डालने में सक्षम थे लेकिन अहोम राजा ने बोरफुकन को सामने से हमला करने का आदेश दिया, जिसके कारण लगभग 10,000 अहोम योद्धाओं की मृत्यु हो गई और 1669 में एक मुग़लों की जीत हुई।
पहले मुगलों ने घाटी के रास्ते से आगे बढ़ने का प्रयास किया लेकिन उन्हें एहसास हुआ कि नदी से यात्रा करना तेज़ होगा। लचित जो एक महान नौसैनिक योद्धा और रणनीतिकार उन्होंने एक जाल बुना थे । इतिहासकार एच के बारपुजारी ('असम का व्यापक इतिहास') के अनुसार, अहोम बलों ने आगे से हमला करने के साथ पीछे से भी अचानक से हमला कर दिया। उन्होंने सामने से कुछ जहाजों के साथ हमले का नाटक करके मुगल बेड़े को आगे बढ़ने का लालच दिया। मुगलों ने अपने पीछे के पानी को खाली कर दिया, जहां से मुख्य अहोम बेड़े ने हमला किया और एक निर्णायक जीत हासिल की। सरायघाट की लड़ाई के एक साल बाद लंबी बीमारी से लचित बोरफुकन का निधन हो गया। एक किंवदंती के मुताबिक वास्तव में वह सरायघाट की लड़ाई के दौरान बहुत बीमार थे लेकिन उन्होंने वीरतापूर्वक अपने सैनिकों को जीत दिलाई थी।
असमिया संस्कृति में लचित बोरफुकन
हर संस्कृति और समुदाय के अपने नायक होते हैं। समय के साथ, लचित बोरफुकन के कारनामे सभी बाधाओं के खिलाफ और बाहरी लोगों के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बन गए हैं। वह असमिया नायकों में से एक ऐसे नायक बन गए हैं जो वीरता, साहस और बुद्धिमत्ता का प्रतीक है, जो असमिया आत्म-पहचान को परिभाषित करता है।
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