ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़ आदिवासियों के हक की लड़ाई रहा है ये आईआईटीएन

आज हम आपको रूबरू कराने जा रहे हैं ऐसी शख्सियत से जिसने त्याग की मिसाल कायम की है। इन्होंने लग्जरी लाइफस्टाइल, व्हाइट कॉलर जॉब, चमचमाती गाड़ी, बंगला और सुकून की जिंदगी, सब छोड़कर आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने को प्राथमिकता दी।
इनका नाम आलोक सागर है। 20 जनवरी 1950 को दिल्ली में जन्मे आलोक ने 1977 में अमेरिका के हृयूस्टन यूनिवर्सिटी टेक्सास से शोध डिग्री ली। टेक्सास यूनिवर्सिटी से डेंटल ब्रांच में पोस्ट डाक्टरेट और समाजशास्त्र विभाग, डलहौजी यूनिवर्सिटी, कनाडा में फैलोशिप भी की।
पढ़ाई पूरी करने के बाद आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर बन गए। यहां मन नहीं लगा तो नौकरी छोड़ दी और आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ने लगे। आलोक सागर 25 सालों से आदिवासियों के बीच रह रहे हैं। उनका पहनावा भी आदिवासियों की तरह ही है। आलोक को अंग्रेजी सहित कई विदेशी भाषाओं का ज्ञान है।
सादगी भरा जीवन है पसंद
आलोक सागर ने 1990 से अपनी तमाम डिग्रियां संदूक में बंदकर रख दी थीं। बैतूल जिले में वे सालों से आदिवासियों के साथ सादगी भरा जीवन बीता रहे हैं। वे आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। इसके अलावा गांव में फलदार पौधे लगाते हैं। अब हजारों फलदार पौधे लगाकर आदिवासियों में गरीबी से लड़ने की उम्मीद जगा रहे हैं।
उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर चीकू, लीची, अंजीर, नीबू, चकोतरा, मौसंबी, किन्नू, संतरा, रीठा, मुनगा, आम, महुआ, आचार, जामुन, काजू, कटहल, सीताफल के सैकड़ों पेड़ लगाए हैं। अब तक आलोक ने आदिवासी इलाकों में कुल 50,000 से अधिक पेड़ लगाए हैं और उनका विश्वास है कि लोग जमीनी स्तर पर काम करके देश को बेहतर सेवा दे सकते हैं।
साइकिल से चलते हैं आलोक
आलोक आज भी साइकिल से पूरे गांव में घूमते हैं। आदिवासी बच्चों को पढ़ाना और पौधों की देखरेख करना उनकी दिनचर्या में शामिल है। कोचमहू आने के पहले वे उत्तरप्रदेश के बांदा, जमशेदपुर, सिंह भूमि, होशंगाबाद के रसूलिया, केसला में भी रहे हैं। इसके बाद 1990 से वे कोचमहू गांव में आए और यहीं बस गए।
महज 3 जोड़ी कुर्ते से चलाते हैं काम
कभी देश के लिए आईआईटियन तैयार करने वाले आलोक के पास आज जमापूँजी के नाम पर 3 जोड़ी कुर्ते और एक साइकिल है। इन्हें भी वो तब पहनते हैं, जब उन्हें गाँव से बाहर किसी गोष्ठी या कार्यक्रम में शिरकत करने जाना हो। अधिकांश समय आलोक कपड़ों के नाम पर एक कपड़ा धोती की तरह बांधकर पहने हुए ही घूमते हैं। आलोक के पास अपनी कोई जमीन नहीं है। वो जिस आदिवासी परिवार के साथ रहते हैं, उन्हीं की जमीन पर खेती कर रहे हैं। इतना ही नहीं पेड़ों को पानी देने के लिए आलोक ने गाँव में ही एक कुआं भी खुदवाया है।
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