इस कपल ने अपने किचन से शुरू की पूरी दुनिया को बचाने की कवायद

प्लास्टिक हमारी सेहत और पर्यावरण के लिए कितनी ख़तरनाक है, ये बात तो लगभग हम सभी जानते हैं। हममें से कई लोग प्लास्टिक के इस्तेमाल को अपने स्तर पर कम करने की कोशिश भी कर रहे हैं। लेकिन कचरा फेंकने के लिए हम में से ज्यादातर लोग प्लास्टिक बैग्स का ही इस्तेमाल करते हैं। बेंगलुरू की रहने वाली ज्योति पहाड़सिंह ने इस समस्या से निपटने का तरीका खोज लिया है।
इकोनॉमिक हॉनर्स और एमबीए ग्रेजुएट ज्योति पिछेले 20 वर्षों से स्टार्टअप और एमएनसी (मल्टीनेशनल कंपनी) में मैनेजमेंट कंसल्टेंट का काम कर रही हैं। शादी से पहले दिल्ली में रहने वाली ज्योति 13 साल पहले अपने पति अरुण बालाचंद्रन के साथ बेंगलुरू शिफ्ट हो गई थीं। जब से बेंगलुरू में प्लास्टिक बैन हुई थी तब से ये इन दोनों को कचरा फेंकने में काफी परेशानी हो रही थी। इस समस्या को सुलझाने के लिए अरुण ने अख़बार से डस्टबिन लाइनर्स बनाना शुरू कर दिए। कई सारी कोशिशों और असफलताओं के बाद फाइनली उन्होंने एक ऐसा बैग बना लिया जो मज़बूत, फ्लेक्सिबल होने के साथ साथ किसी भी शेप के डस्टबिन में फिट हो रहा था। उन्होंने इस बैग को चिपकाने के लिए फेविकॉल की जगह मैदे से बने ग्लू का इस्तेमाल किया। ताकि ये जल्दी डिकम्पोज़ हो जाएं।
शुरुआत में ये डस्टबिन लाइनर्स एक एक्सपेरिमेंट की तरह इस्तेमाल किए गए लेकिन धीरे - धीरे ज्योति और अरुण के परिवार वालों के अलावा उनके दोस्त और कुछ पड़ोसी भी इन कागज़ से बने लाइनर्स का इस्तेमाल करने लगे। ये बात 2015 की है। उस समय ज्योति और अरुण दोनों ने ही ये नहीं सोचा था कि इन बैग्स से पैसे कमाए जा सकते हैं। लेकिन उनके एक दोस्त ने उन्हें सलाह दी कि अगर तुम न्यूज़पेपर से बने बैग्स का इस्तेमाल कचरा फेंकने के लिए करते हो तो इसका बड़े स्तर पर प्रोडक्शन किया जा सकता है। उसने आंध्र प्रदेश के अपने गांव की महिलाओं के बारे में बताया जिनके पास आय का कोई साधन नहीं था, उन्हें ये बैग्स बनाने की ट्रेनिंग देकर अपने काम को बढ़ाया जा सकता था। अरुण और ज्योति के लिए ये एक नई शुरुआत थी।
इसके बाद अरुण और ज्योति ने ग्रीन बग नाम से स्टार्टअप की शुरुआत की। आईआईएम-बी के साथ गोल्डमैन सैक्स द्वारा प्रायोजित एक महिला-उद्यमिता कार्यक्रम में 1,700 आवेदकों के बीच ग्रीनबग का चयन किया गया था। वेबसाइट योर स्टोरी से बात करते हुए ज्योति कहती हैं, एक बार अगर आप आईआईएम से जुड़ जाते हैं तो आप इसे सिर्फ एक शौक की तरह नहीं ले सकते। इससे पहले तक सिर्फ एक फेसबुक पेज के ज़रिए ही हम ऑनलाइन प्रजेंट थे। हमने इसे बहुत कम ही अपने सर्कल के बाहर प्रमोट किया था लेकिन फिर चीज़ें बदल गईं।
वह कहती हैं कि शुरुआत में हमें अपना मार्केट बनाने में बहुत दिक्कत हुई क्योंकि एक प्लास्टिक बैग की कीमत 50 पैसे होती है लेकिन ग्रीनबग की कीमत 5 से 6 रुपये होती थी इसलिए हम मध्यमवर्गीय परिवारों में अपनी पहुंच नहीं बना पा रहे थे। ज्योति कहती हैं कि होलसेल में भी हम 15 फीसदी से ज़्यादा डिस्काउंट नहीं दे पाते थे।
लेकिन इसके बाद उनके मेंटर और टाउन इसेंशियल के सीईओ अमर कृष्णमूर्ति ने उन्हें बेंगलुरू से बाहर बाज़ार बनाने में मदद की। ज्योति कहती हैं कि इसके बाद हमारी पहुंच बढ़ी। इसके बाद आईआईएम ने हमें सलाह दी कि हमें नॉर्मल एफएमसीजी स्टोर्स की जगह ऑर्गेनिक स्टोर्स खोलने चाहिए। इसके बाद हमने एमज़ॉन पर 400 रुपये में 75 बैग्स बेचना शुरू किए।
महिलाओं को किया सशक्त
ये डस्टबिन लाइनर्स एकदम नई डिज़ाइन के थे इसलिए इन्हें बनाना किसी को नहीं आता था। इसके बादा अर्जुन और ज्योति ने गांव की गरीब महिलाओं को ये पेपर बैग्स बनाना सिखाए। इन महिलाओं को ये डिसाइड करने की छूट दी गई थी कि वे अपना कितना समय इस काम में दे सकती हैं।
इसके बाद अपने इकट्ठे किए हुए पैसों से ज्योति और अरुण ने अपने बिजनेस को बढ़ाना शुरू किया। 2016 में उन्होंने कमर्शियलाइज़्ड ग्रीनबग शुरू किया। इसके लिए उन्होंने आंध्र प्रदेश के गांव में महिलाओं के साथ काम करना शुरू किया। दोनों ने मिलकर कई गांवों की महिलाओं को सशक्त किया। इन महिलाओं को ट्रेनिंग देने में 3 से 5 हफ्ते का समय लगा और इसमें काम करने वाली 30 महिलाएं ऐसी हैं जो किसी भी समय ये बैग्स बनाकर दोनों को तैयार रहती हैं।
धीरे - धीरे ज्योति और अर्जुन इस काम को बढ़ाते गए और आगे बढ़ते गए। अब ग्रीन बग के मदुरई, ऊटी, सलेम, कांचीपुरम, आगरा, भोपाल, त्रिवेंद्रम, वास्को डि गामा, जम्मू और अंबरनाथ सहित 25 ज़िलों में स्टोर्स हैं। 2017 के फाइनेंशियल ईयर में ग्रीनबग ने 1.3 लाख रुपये का रेवेन्यू जनरेट किया जो 2018 में बढ़कर दोगुना हो गया।
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