खेतों में पानी की कमी को फलों के छिलकों से दूर करता है ये किसान

राजस्थान में पानी की कमी के बारे में सबको पता है, लेकिन फिर भी खेती के मामले में ये राज्य किसी से पीछे नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां के किसानों को खेती की सही तकनीकों और तरीकों की अच्छी खासी जानकारी है। राजस्थान के ऐसे ही एक किसान हैं केरडी गांव के नारायण लाल। नारायण के पिता देवी लाल के खेतों में बाजरा, मक्का और सरसों की फसल तैयार हो गई थी, लेकिन बारिश कम होने की वजह से जमीन में पानी की कमी हो गई थी और फसल पर इसका बुरा असल पड़ रहा था। फसल को बेहतर करने के लिए उन्होंने खेत में कई उवर्रक डाले थे और सिंचाई भी की थी, लेकिन फसल को सही पोषण फिर भी नहीं मिल पा रहा था। ऐसे में देवीलाल ने अपने बेटे नारायण लाल से अपनी परेशानी साझा की।
बचपन से ही नारायण की रुचि खेती और इससे जुड़ी तकनीकों में थी। उन्होंने कई साइंस प्रोजेक्ट्स भी बनाए थे, जो खेती में मददगार साबित हो सकते थे। ऐसे में उन्होंने सोचा कि वो कुछ ऐसा तो जरूर करेंगे जिससे उनके पिता की समस्या दूर हो सके। बेटर इंडिया से बात करते हुए नारायण बताते हैं, मेरी खेती या तो भूजल या मेरे गांव की कृत्रिम झील पर निर्भर है। इसी झील में बारिश का पानी इकट्ठा होता है, लेकिन बारिश कम होने की वजह से कई बार इसमें भी पानी इकट्ठा नहीं हो पाता। वह कहते हैं कि इस वजह से मेरे गांव की फसल की उपज में 30 फीसदी तक की कमी आ गई थी।

जब नारायण के पिता ने उनसे इस बारे में चर्चा की थी, उस वक्त वह हाईस्कूल में थे। उनके पास इस समस्या का तब कोई समाधान नहीं था, लेकिन जब भी 12वीं में पहुंचे तब उन्होंने पॉलीमर के बारे में पढ़ा। सुपर एब्जॉर्बेंट पॉलिमर (SAP) ऐसे रसायनिक पदार्थ होते हैं, जो बहुत अधिक मात्रा में किसी भी तरल पदार्थ को सोख सकते हैं। अगर इसे एक दम शुद्ध पानी में मिलाया जाए, तो ये वजन से 300 से1200 गुना अधिक तरल पदार्थ को सोखने की क्षमता रखता है। पर अगर इसे नमक के पानी में मिलाया जाए, तो सोखने की यह क्षमता आधी हो जाती है।
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अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो एक ऐसा पदार्थ, जो ज़्यादा से ज्यादा पानी सोख सकता है और साथ ही, काफी समय तक पानी को अपने में रख सकता है, जब तक कि उस पानी की एक-एक बूंद का इस्तेमाल न हो जाए। इस पदार्थ को अक्सर, डायपर और सेनेटरी पैड में इस्तेमाल किया जाता है।
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नारायण ने सोचा कि वह अपने यहां की मिट्टी में भी इसका प्रयोग करके देखेंगे। उन्होंने सबसे पहले इसका उपयोग इस उस मिट्टी पर किया, जिसकी पानी को सोखकर रखने की क्षमता कम थी। वैसे तो मिट्टी में मिट्टी में जल-धारण की इस समस्या के लिए रसायन इस्तेमाल किए जाते हैं, लेकिन नारायण का कहना है कि ये रसायन फसलों को, मिट्टी को, और मिट्टी की उर्वरक क्षमता को काफी नुकसान पहुंचाते हैं और ये रसायन, मिट्टी और हवा में प्रदूषण भी फैलाते हैं। यही नहीं, इन्हें मिट्टी में घुलने में भी काफी समय लगता है। आर्थिक रूप से भी ये किसानों के लिए बेहतर नहीं होते क्योंकि इनकी कीमत लगभग 700 रुपये प्रति किलो है।

पढ़ाई के दौरान नारायण को जब इन पॉलीमर के बारे में जानकारी मिली, तब उन्होंने सोचा कि क्यों न इसके प्राकृतिक तत्वों के बारे में भी पता लगाया जाए। उन्होंने ऐसे प्राकृतिक तत्वों के बारे में पता लगाने की कोशिश की जिनके गुण इस तरह के पॉलीमर से मिलते हों। कुछ रिसर्च करने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि फलों के छिलकों में भी पानी सोखने की क्षमता, पॉलीमर जैसी ही होती है।
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नारायण को जब इस बारे में पता चला, वो उनकी जिंदगी का सबसे खास पल था। इसके बाद उन्होंने बायोडिग्रेडेबल चीजों का इस्तेमाल कर, एक इको- फ्रेंडली वाटर रिटेंशन पॉलीमर (ईएफपी) विकसित किया। अब ईएफपी एक पाउडर रूप में उपलब्ध है, जिसे खेतों में छिड़कना बहुत ही आसान है। मिट्टी में मिलने पर यह बारिश का ज्यादा से ज्यादा पानी सोख लेता है और इसकी तब तक इस पानी को रखता है जब तक इसकी आखिरी बूंद का इस्तेमाल न हो जाए। यह ईएफपी पाउडर पौधों की जड़ों में छिड़का जाता है और फिर पौधे इससे अपनी जरूरत के मुताबिक पानी ले लेते हैं।
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नारायण बताते हैं, “यह आविष्कार पूरी तरह से जैविक कचरे (बायो-वेस्ट) से बना है, जिसमें फलों के छिलके होते हैं, जिन्हें जूस बनाने वाले छोटे कारखाने अक्सर फेंक देते हैं। जैविक कचरे से बनने के कारण यह पाउडर बाजार में मिलने वाले किसी भी पॉलीमर से बहुत सस्ता है। इसमें सबकुछ प्राकृतिक है, इसलिए इससे पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होता।

नारायण ने जब यह पॉलीमर बनाया तो सबसे पहले इसे देवी लाल और उनके गांव के कुछ किसानों ने ही खरीदा। नारायण बताते हैं कि किसानों को इस ईएफपी को खरीदने और इस्तेमाल करने के लिए ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि इसकी कीमत किसानों के लिए मात्र 100 रुपये प्रति किलो थी।
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“हम नर्सरी व अन्य ग्राहकों से औसतन 120 रुपये प्रति किलो लेते हैं। इसमें प्रोसेसिंग, ट्रांसपोर्ट आदि का शुल्क और अन्य टैक्स शामिल हैं। किसानों को हम ये 100 रुपये प्रति किलो की दर से बेचते हैं,” नारायण ने योर स्टोरी को दिए एक इंटरव्यू में बताया। इस उत्पाद की कीमत रासायनिक पॉलीमर से 80 प्रतिशत कम है और फिर भी यह उद्योग, हर एक किलो पर 40 प्रतिशत तक का मुनाफा कमा रहा है।

नारायण का यह प्रयोग सफल रहा और उन्होंने 2014 में ‘इको- फ्रेंडली वाटर रिटेंशन पॉलीमर’ नाम से अपना स्टार्टअप शुरू किया और वह इसके सीईओ हैं। केरडी में इस पाउडर की बिक्री के बाद, नारायण और उनकी टीम ने राजस्थान में लगने वाले अलग-अलग कृषि मेलों और प्रदर्शनियों में जाकर, अपने इसका प्रचार किया। इस उत्पाद की कई खूबियों ने लोगों का ध्यान खींचा, जैसे कि इससे गीले कचरे का अपघटन हो जाता है, साथ ही, यह पर्यावरण के अनुकूल पानी सोखने वाला पॉलीमर है और फिर, फसल के लिए उर्वरक का काम भी करता है।
कुछ ही वक्त में उनका ये प्रोडक्ट हिट हो गया। में, उन्हें सैंकड़ों आर्डर मिलने लगे, जो न सिर्फ राजस्थान, बल्कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और यहाँ तक कि यूएई और दक्षिणी कोरिया से भी थे! एक समय ऐसा भी था, जब उन्हें लगा कि शायद पहले से मिले 500 ऑर्डर को ही पूरा कर पाना मुमकिन न हो। इस सबके अलावा, अपनी पढ़ाई, ऑर्डर पूरे करने, और फंड्स की दिक्कतें, ये सभी चीज़ें नारायण ने एक साथ संभाली। और अब वे एक युवा और प्रोफेशनल टीम बना रहे हैं, जो मार्केटिंग, नेटवर्किंग और टीम प्रबंधन में माहिर हो।
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