मिलिए स्वच्छता का संदेश देने वाली कलावती से, बनवाए 4000 से ज्यादा टॉयलेट
एक समय था जब राजा का पुरवा गाँव के 700 परिवारों के बीच में एक भी टॉयलेट नहीं था लेकिन आज के समय में वहां कोई भी खुले में शौच के लिए नहीं जाता। हर किसी के घर में टॉयलेट बने हैं और सभी नियमित उसी का इस्तेमाल भी करते हैं।
इस बदलाव का श्रेय कानपुर की 57 वर्षीय कलावती को जाता है। उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के राजा का पुरवा गाँव की रहने वाली कलावती ने इस बात को समझा कि लोगों की ये आदत उनके सेहत पर कितना भारी पड़ सकता है। कलावती बताती हैं कि उस समय हालत ये थी कि अगर कोई नरक की तस्वीर बनाना चाहता हो तो उसके लिए हमारा गाँव बिल्कुल सही उदाहण था और किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं जा रहा था। कलावती ने सबसे पहले खुद से शुरुआत करने की सोची क्योंकि उनका मानना था कि आप समाज को तभी बदल पाएंगें जब आप खुद बदलेंगे। सरकार सिर्फ मदद कर सकती है बाकी ये जिम्मेदारी तो हमारी ही है कि हम अपनी सेहत और साफ-सफाई का ध्यान रखें।
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30 साल पहले की थी मुहिम की शुरुआत
आज से लगभग 30 साल पहले कलावती ने इस मुहिम की शुरुआत की। उन्होंने सबसे पहले अपने घर में टॉयलेट बनवाया और उसके बाद गाँव वालों को इस बारे में जागरुक किया कि टॉयलेट का होना कितना जरूरी है। अगर आज की बात करें तो कलावती लगभग 4000 शौचालय बनवा चुकी हैं। इसके लिए वो अलग-अलग संस्थाओं से भी मदद लेती हैं। कलावती को जैसे ही जानकारी होती है कि उस कस्बे या गाँव में टॉयलेट नहीं है वो वहां की संस्थाओं से मिलकर ऑयलेट बनवाने का काम शुरू करवा देती हैं।
कलावती ने बताया कि उनकी शादी आज से लगभग 40 साल पहले हुई और वो राजापुरवा मलिन बस्ती आ गईं। उनके पति जयराज सिंह राजमिस्त्री थे, कलावती उनके कामों में मदद करती थीं। इसी दौरान उनकी मुलाकात श्रमिक भारतीय संस्था से जुड़ी शिक्षिका प्रभा और गनेश पाण्डेय से हुई। बस्ती के लोगों की हालत पहले से ही खराब थी, ज्यादातर लोग कर्ज में डूबे थे। ऐसे में उनको टॉयलेट बनवाने के लिए समझाना मुश्किल था।
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मुश्किलें कम नहीं थीं
कलावती बताती हैं, इस काम को शुरू करने के बाद भी कई मुश्किलें थीं। न तो कोई टॉयलेट के लिए अपनी जमीन देना चाहता था, न लोग इसके लिए पैसे खर्च करना चाहते थे और न मजदूर कम पैसों में बनाना चाहते थे। इसके साथ ही बहुत से सवाल ये भी थे कि टॉयलेट इतना जरूरी क्यों है। गरीबी वाली जिंदगी में टॉयलेट जरूरी क्यों है। ये समझाना आसान नहीं था। इसके लिए मैं एक-एक के घर कई बार जाती थी, एनजीओ वालों के साथ मिलकर लोगों को समझाती थी।
समूह बनाकर की बचत
इसके लिए कलावती ने पहले महिलाओं का एक समूह बनाया और जिसमें दस-दस लोगों को जोड़ा। हर व्यक्ति रोज दस-दस रुपए जमा करता था और पैसे उन लोगों को दिए जाते थे जिन्हें बहुत ज्यादा जरूरत होती थी। धीरे -धीरे समूह में लोगों जुड़ते गए अब जो भी पैसा जमा होता था उससे धीरे-धीरे लोगों का कर्ज चुकाया जाने लगा। इस दौरान बस्ती में शौचालय नहीं था लोग खुले में शौच के लिए जाते थे। कलावती ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सामुदायिक शौचालय बनाने का बीड़ा उठाया। आज से 30 साल पहले 55 सीट के सामुदायिक शौचालय का निर्माण तीन लाख रुपये में होने की लागत आयी। एक लाख रुपये जनता को जमा करने थे।
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