जंगल की दादी ने किया ये कमाल, मिला पद्म सम्मान

ऐसा नहीं है कि कुछ बड़ा करने के लिए आपका बड़े शहर में रहना जरूरी है, सुदूर जंगलों में रहकर भी समाज के लिए बहुत कुछ अच्छा किया जा सकता है, और इसी बात का जीता जागता उदाहरण हैं जंगल की दादी लक्ष्मीकुट्टी। कहते हैं कि अगर आप दूसरों के लिए कुछ करते हैं तो एक न एक दिन आपके सितारे जरूर बुलंद होते हैं। 75 साल लक्ष्मीकुट्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। पढ़िए केरल के जंगल से राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने की उनकी कहानी...
लक्ष्मीकुट्टी ने जंगलों में रहकर वहां के लोगों के लिए सर्पदंश से बचने की 500 से अधिक हर्बल दवाईयां खोज निकाली हैं और अब तक हजारों लोगों की जान बचा चुकी हैं। समाज के लिए अच्छा काम करने पर इस वर्ष उन्हें देश के चौथे सबसे बड़े पुरस्कार पद्मश्री से नवाजा जा चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने खास कार्यक्रम 'मन की बात' में जंगल की दादी की तारीफ भी कर चुके हैं। लक्ष्मीकुट्टी केरल के तिरुवनंतपुरम में कल्लार के जंगलों के बीच एक आदिवासी गाँव में ताड़ के पत्तों की छत वाली एक छोटी सी कुटिया में रहती हैं।
जंगलों में आए दिन लोगों को सर्पदंश की घटनाओं से जूझना पड़ता है। ऐसे में लोगों के पास तत्काल में इलाज की कोई व्यवस्था भी नहीं होती है। वे सीधे ही लक्ष्मीकुट्टी के पास आ जाते हैं और वह अपनी हर्बल दवाओं से लोगों को ठीक कर देती हैं। कोबरा जैसे खतरनाक सांपों का जहर शरीर से समाप्त करने की खोज अभी तक साइंस भी सही तरीके से नहीं कर पाया है, लेकिन ये अजूबा कर दिखाया है जंगल की दादी कही जाने वाले लक्ष्मीकुट्टी ने। उनके इस आश्चर्यजनक काम पर अब दक्षिण भारत के साइंस सेमिनारों में उन्हें अपने विचार रखने के लिए बुलाया जाता है।
50 दशक में आदिवासी क्षेत्र से एकलौती पढ़ी-लिखी महिला होने के कारण 75 वर्षीय लक्ष्मीकुट्टी केरल फाेक्लॉर अकादमी में शिक्षिका और एक कवयित्री भी हैं। उनकी छोटी सी कुटिया के आसपास विभिन्न जड़ी बूटियाँ लगी हुई हैं। दूर दूर से सैकड़ों लोग लक्ष्मीकुट्टी से वन औषधियों द्वारा विष उतरवाने के लिए पहुँचते हैं लेकिन उनकी उपचार की विधि औषधियों तक सीमित नहीं है। वे रोगी के साथ घंटों तक प्यार और विनम्रता से बातें करती हैं, जिसका इलाज में अपना योगदान होता है। बहुत से लोग प्यार से लक्ष्मीकुट्टी को वनामुथस्सी नाम से भी पुकारते हैं। जिसका अर्थ होता है जंगल की दादी माँ।
अपनी माँ से मिली थी ये विद्या

लोगों का विष उतारने की विद्या लक्ष्मी को विरासत में मिली है। उनकी माँ भी जड़ी-बूटियों से शरीर से विष उतारने का काम करती थीं। अब लक्ष्मीकुट्टी अपनी माँ के ज्ञान का प्रयोग समाज के लिए नेक काम में कर रही हैं। उनकी माँ गाँव में एक प्रसविका (दाई) का काम करती थीं। क्योंकि लक्ष्मी कुट्टी और उनकी माँ दोनों ने ही कभी इस ज्ञान को लिखित में नहीं उतारा था, केरल वन विभाग ने उनके ज्ञान पर आधारित एक किताब संकलित करने का निर्णय लिया है। वह कहती हैंए “अपनी स्मरण शक्ति से ही मैं 500 औषधियाँ तैयार कर सकती हूँ। आज तक उन्हें भूली नहीं हूँ। यहाँ उपचार के लिए आने वाले लोगों में से अधिकतर लोग सांप या कीड़ों-मकोड़ों द्वारा काटे जाने पर यहाँ आते हैं।”
1995 में मिली थी उनके काम को पहचान

जंगलों में रहते हुए वर्षों से काम कर रही लक्ष्मीकुट्टी को पहचान 1995 में मिली। उनके काम पर ध्यान जंगल से बाहर रहने वाले व्यक्तियों तक पहुंचा था। उनके इसी काम पर जब इसी वर्ष उन्हें केरल सरकार की तरफ से नेचुरोपेथी के लिए नाटु वैद्या रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उसके बाद उनका काम बाहर के लोगों में भी प्रसिद्ध हो गया। लक्ष्मीकुट्टी स्वयं कहती है कि उससे पहले मुझसे मिलने सिर्फ़ वही लोग आते थे जिन्हें मेरे बारे में मेरे पिछले मरीजों ने बताया हो। 1995 से पहले भी मुझे मिलने दूर दूर से लोग आते थे लेकिन पुरस्कार मिलने के बाद संख्या काफी बढ़ गयी। उनके इस काम पर उन्हें भारतीय जैव विविधता कांग्रेस द्वारा 2016 में सम्मानित किया गया है।
हर दिन दस किलोमीटर दूर जाती थीं पढ़ने
50 के दशक में पढ़ाई करना वास्तव में बहुत बड़ी बात थी वह भी वैसी जगह पर जहां पढ़ने के लिए स्कूल तक नहीं थे। लक्ष्मी के अनुसार, ''जब मैंने जिद की थी तो पिताजी को मेरी बात माननी पड़ी।'' उस समय वह अपने गांव के दो और लड़कों के साथ हर रोज दस किलोमीटर चल कर स्कूल जाती थीं लेकिन वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाईं क्यूँकि उस विद्यालय में आगे की शिक्षा का प्रबंध नहीं था। उन्होंने आगे गांव में ही रहते हुए लोगों की सेवा करना शुरू कर दिया।
परिवारिक रूप से टूट चुकी हैं लक्ष्मी
लक्ष्मी भले ही दूसरो की सेवा कर रही हों लेकिन परिवारिक जीवन में खुशियां बहुत ही कम हैं। उन्होंने अपने दो बेटों को खो दिया है और पिछले साल अपने पति को भी। इसके बाद भी उन्होंने हौसला नहीं हारा। लक्ष्मी की शादी 16 साल की उम्र में मथन कानिथा के साथ हुई थी। वह बताती है कि बच्चों को उन चुनौतियों से गुजरना न पड़े जिनका सामना उन्हें खुद करना पड़ा था, हमने अपने बच्चों को अच्छी स्कूली शिक्षा प्रदान की। "यह मेरी जिद थी के मेरे बच्चे पढ़ें। मेरे गाँव में शिक्षा पाना आसान नहीं है। मैं शिक्षा को बहुमूल्य समझती हूँ।" लक्ष्मी के बड़े बेटे की मृत्यु हो चुकी है जिससे एक जंगली हाथी ने मार डाला था।" उन्होंने अपने छोटे पुत्र को भी एक दुर्घटना में खो दिया है। उनका एक और बेटा है जो रेलवे में प्रमुख टिकट जाँच-अधिकारी का काम करता है।
कुटिया को छोटा सा अस्पताल बनाने का है सपना

लोगों के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाली लक्ष्मीकुट्टी की इच्छा है कि उनकी कुटिया एक दिन अस्पताल का रूप ले। घने जंगलों के बीच आदिवासी इलाके में ताड़ के पत्तों से बनी छोटी सी झोपड़ी को वे एक दिन छोटा सा अस्पताल के रूप में देखना चाहती है। वे चाहती है कि एक दिन उनकी यह कुटिया एक छोटा सा अस्पताल बने जहाँ लोग लम्बे समय की चिकित्सा के लिए आएँ। उन्होंने दक्षिण भारत की कई संस्थाओं में प्राकृतिक चिकित्सा के बारे में भाषण दिए हैं। “मैंने जंगल से बाहर कई क्षेत्रों में यात्रा की है। बहुत से लोगों से मिली हूँ। लेकिन यही मेरा घर है। यही मेरा धरोहर है।”
स्थानीय भाषा में रहा उनकी किताबों का प्रकाशन
प्राकृतिक चिकित्सा से परे, इसके अलावा वह अन्य प्रतिभाओं की धनी है। लक्ष्मी कुट्टी अपनी व्यंग्य भरी कविताओं और लेखन के लिए भी जानी जाती है। उन्होंने आदिवासी संस्कृति और जंगल के वर्णन जैसे अलग अलग विषयों पर कई लेख लिखे हैं जिन्हें डी. सी. बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है। उनकी कविताएँ एक ताल पर सुनाई जा सकती हैं। "इनकी शब्दावली सरल है, जिसे कोई भी गा सकता है। उन्हीं सभी रचनाएं अपनी मातृभाषा अर्थात् आदिवासी भाषा लिखा है।
हास्य कवि अशोक चक्रधर ने लिख डाली उन पर आरती
जय लक्ष्मी कुट्टी,
मैया जय लक्ष्मी कुट्टी!
सर्पदंश के विष की, नागवंश के विष की,
कर डाली छुट्टी। अम्मा जय लक्ष्मी कुट्टी!
लक्ष्मी होकर ख़ुद लक्ष्मी से,
ना चाही माया। मैया ना चाही माया।
जड़ी-बूटियां घोट-घोट कर,
पद्मासन पाया। अम्मा पद्मासन पाया।
धन वालों की लक्ष्मी जी से,
सदा रखी कुट्टी। मैया जय लक्ष्मी कुट्टी!
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