आखिर क्यों अखाड़ों द्वारा की जाती है पेशवाई, छावनी प्रवेश से पहले क्यों आवश्यक है पेशवाई का रिवाज
पेशवाई की परंपरा का जुड़ाव मध्यकालीन भारत से रहा है, जब अखाड़ों के साधु-संत धार्मिक और सैन्य शक्ति के रूप में देखे जाते थे। तब अखाड़े अपने अनुयायियों के समक्ष अपनी शक्ति और अनुशासन का प्रदर्शन किया करते थे। मुगल काल में भी राजा-महाराजाओं को पेशवा के नाम से जाना जाता था, उस वक्त भी धर्म-ध्वजा की रखा के लिए राजा साधु-संतों की झांकियों को विधिवत हाथी-घोड़ों की पालकी से निकाला करते थे। इस प्रकार से पेशवाई का जन्म हुआ। पेशवाई का असल उद्देश्य आस्था को मजबूत करना और अखाड़ों की पहचान को विशेष बनाना है।
अखाड़ों की सार्वजनिक उपस्थिति और प्रभाव
प्रत्येक अखाड़े अपना दमखम दिखाने के लिए हाथी-घोड़े, बैंड-बाजे और परंपरागत अस्त्र-शस्त्र के भारी बंदोबस्त के साथ अपनी पेशवाई निकालते हैं। पेशवाई का एकमात्र उद्देश्य सामाजिक और धार्मिक प्रभाव के साथ बल और अनुशासन का प्रदर्शन करना होता है।
धार्मिक अनुष्ठान और पेशवाई का महत्व
साधु-संतों द्वारा पेशवाई के पूर्व किसी भी आयोजन में पूजा-पाठ नहीं की जाती है। धार्मिक अनुष्ठानों के शुरू होने के पूर्व पेशवाई की जाती है, जिसके बाद ही किसी प्रकार का हवन अनुष्ठान किया जा सकता है। अखाड़ों की स्थापना से ही पेशवाई का चलन शुरू हुआ, जिसका महत्व हमारे धार्मिक अनुष्ठान से जुड़े हुए हैं।
अनुयायियों के आकर्षण का केंद्र
पेशवाई में साधु-महात्मा अपने अलग-अलग अंदाज में जन सामान्य के सामने प्रस्तुत होते हैं, इसका एक विशेष कारण भी है। पेशवाई अखाड़ों के प्रति श्रद्धालुओं के आस्था को बढ़ाने का अवसर होता है। पेशवाई में लोगों को उन साधु-महात्माओं के भी दर्शन होते हैं, जो कि आम जीवन में संभव नहीं हो सकता है।
छावनी प्रवेश की प्रक्रिया
महाकुंभ या किसी अन्य आयोजन में छावनी प्रवेश का काफी महत्व है। छावनी प्रवेश उस समय को कहा जाता है, जब साधु-संत पेशवाई प्रस्तुत करने के बाद अपने तंबुओं में भजन-कीर्तन या तय-योग के लिए प्रवेश करते हैं। छावनी प्रवेश के बाद प्रत्येक अखाड़ा अपनी धर्म ध्वजा जो कि उनके अखाड़े का प्रतीक होती है, उसे स्थापित करता है, जिससे कि उनके अखाड़े की पहचान दूर से ही संभव हो सके।