कैराना लोकसभा सीट: महागठबंधन, या फिर कोई और रहेगा भारी

कैराना का नाम आते ही दो चीजें याद आती है पहली कस्बे से पलायन करने वाले हिन्दू और दूसरी 2018 में लोकसभा के उपचुनाव में भाजपा की हार। दोनों ही मुद्दों को लेकर कैराना लोकसभा सीट चर्चा में रही है। ठाकुर हुकुम सिंह के समय कैराना हिन्दुओं के शहर से पलायन कर जाने को लेकर था। वहीं उनकी मौत के बाद उपचुनाव को लेकर कैराना चर्चा में था। उत्तर प्रदेश की दूसरी लोकसभा सीट से 2018 के उपचुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था। इस उपचुनाव में महागठबंधन की उम्मीदवार रही तबस्सुम हसन ने सांसद रहे हुकुम सिंह की बेटी मृंगाका सिंह को मात दी थी। मुजफ्फरनगर से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर कैराना कस्बा बसा है। कैराना हरियाणा के पानीपत से सटा यमुना नदी के पास और शामली से 12 किलोमीटर पर है। इस तहसील में करीब 12 लाख की आबादी है। किराना नाम से इसका नाम कैराना पड़ा। प्राचीन काल में कर्णपुरी के नाम से कैराना विख्यात था। साल 1962 के चुनाव में गठित इस सीट में पांच विधानसभाएं है।
क्या है राजनीतिक इतिहास
उत्तर प्रदेश की कैराना सीट का राजनीतिक तौर पर क्या महत्व है इसका अंदाजा 2018 में हुए उपचुनाव से लगाया जा सकता है। इस सीट को जीतने के लिए बीजेपी एक तरफ और दूसरी कांग्रेस सहित पूरा गठबंधन था। इस सीट पर तबस्तुम हसन के बेटे को हराकर 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इस सीट पर कब्जा किया था। इस सीट से भाजपा से हुकुम सिंह यहां से सांसद चुने गए। पिछले साल उनका निधन हो गया, इसके बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में आरएलडी की तबस्सुम हसन ने जीत दर्ज की। उन्होंने बीजेपी प्रत्याशी मृगांका सिंह को हरा कड़ी टक्कर दी और रण फतेह किया। बता दें कि 2009 में बीएसपी की हसन बेगम तबस्सुम सांसद थी। इससे पहले इस सीट से 2004 में आरएलडी की अनुराधा चौधरी, 1999 में आरएलडी के अमीर आलम, 1998 में बीजेपी के वीरेंद्र वर्मा यहां से सांसद थे।

क्या है जातीय समीकरण
कैराना लोकसभा सीट में शामली जिले की थानाभवन, कैराना और शामली विधानसभा सीटें और सहारनपुर जिले की गंगोह और नकुड़ विधानसभा सीटें आती हैं। इस लोकसभा में करीब 17 लाख मतदाता हैं। सबसे अधिक जनसंख्या यहां पर मुस्लिम मतदाताओं की है। इसके बाद जाट और दलितों की संख्या है। वैसे, जिस उम्मीदवार को मुस्लिम और दलित मतदाताओं का वोट मिल जाता है। उसकी जीत लगभग पक्की रहती है। यह सीट आरएलडी के पास रही है। लेकिन साल 2014 में बीजेपी ने सेंधमारी की थी, लेकिन उपचुनाव में सीट को बचा नहीं सकी। इस सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की लगभग 5 लाख 20 हजार, दलितों का दो लाख 70 हजार, कश्यप का एक लाख 22 हजार, सैनी का एक लाख 17 हजार, जाट का एक लाख 30 हजार और गुर्जरों का एक लाख 24 हजार वोट है। उपचुनाव में हारने के बाद सीट पर फिर से बीजेपी ने गोलबंदी शुरू कर दी है।
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उपचुनाव में दिखी थी विपक्ष की एकता
2018 के उपचुनाव में राष्ट्रीय लोक दल की उम्मीदवार तबस्सुम हसन ने जीत दर्ज की थी। इस उपचुनाव में आरएलडी की तबस्सुम हसन को 4,81,182 वोट मिले थे, जबकि बीजेपी की मृगांका सिंह की झोली में महज 4,36,564 वोट मिले। कांटे की टक्कर में उन्होंने 44,618 वोटों से जीत हासिल की। तबस्सुम इस जीत के साथ यूपी में साल 2014 के बाद पहली मुस्लिम सांसद बन गईं। बता दें इस सीट पर बीएसपी और एसपी ने अपना दावेदार नहीं उतारा था।

तबस्सुम हसन को विरासत में मिली है राजनीति
राजनीति से तबस्सुम हसन का बहुत ही पुराना नाता रहा है। उनके लिए न तो राजनीति नई है और न ही कैराना लोकसभा सीट। कैराना के लोगों का उनके परिवार को दशकों से प्यार मिल रहा है। 2018 के उपचुनाव में भी उन्हें प्यार मिला और एक बार फिर से जनता ने उन्हें सांसद भेजा। राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखने वाली तबस्सुम हसन ने साल 2009 में बीएसपी से उम्मीदवार रहते हुए कैराना लोकसभा सीट से जीत हासिल की थीं। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में उनके बेटे नाहिद हसन ने सपा से हुकुम सिंह को चुनौती दी थी, चुनाव में हुकुम सिंह ने जीत दर्ज की थी। तबस्सुम हसन के ससुर चौधरी अख्तर हसन सांसद रह चुके हैं, पति मुनव्वर हसन कैराना से दो बार विधायक, दो बार सांसद, एक बार राज्यसभा और एक बार विधान परिषद के सदस्य भी रहे हैं।
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