एक दौर था जब पूरा शहर घंटाघर के पेंडुलम की आवाज पर ही चलता था और उसी पर रूकता था, उस समय लोगों के पास समय देखने का और कोई जरिया नहीं था, घड़ी सिर्फ अमीरों के शौक हुआ करते थे।
हम जब कहीं घूमने जाते हैं तो वहां की कुछ इमारतें और उनसे जुड़े इतिहास हमें हैरत में डाल देते हैं। हम सोच में पड़ जाते हैं कि आखिर इसे क्यों बनवाया गया हो, कुछ ऐसा ही अचानक मेरे दिमाग में लखनऊ का घंटाघर देखकर आया। आपने भी अगर गौर किया हो तो घंटाघर हर शहर में ही होते हैं जो उस शहर के प्रमुख लैंडमार्क्स में एक होता है। लेकिन क्या कभी सोचा है कि इनकी जरूरत क्यों पड़ी। जिस दौर में इन्हें बनवाया गया उस वक्त लोगों के पास समय पता करने का कोई और तरीका नहीं था क्योंकि घड़ी सिर्फ रईसों के लिए थी।
अंग्रेजों से लेकर कई नवाबों ने समय देखने के लिए घंटाघरों का निर्माण शुरू कराया। कई ऐसे भी घंटाघर हैं जो आज भी शहर की पहचान बने हैं इन्हें खास तरीके से बनवाया गया था और दूर-दूराज से आये पर्यटक यहां घूमने भी आते हैं। तो इस बार हम आपको बता रहे हैं देश के कुछ फेसम घंटाघर और उनसे जुड़ी कुछ खास किस्से जिसे सुनकर आपका भी मन कर जाएगा एक बार उन्हें करीब से देखने का।
नवाबों ने बनवाया था सबसे बड़ा घंटाघर
तहजीब की बात हो तो लखनऊ का नाम सबसे पहले आता है यूं तो नवाबों ने लखनऊ को कई सारी ऐसी इमारतें दीं जो आज दुनियाभर में उसे अलग पहचान देती हैं लेकिन अगर बात करें लखनऊ के घंटाघर की तो ये देश का सबसे ऊंचा घंटाघर हुसैनाबाद यही हैं जिसे 1887 में नवाब नसीरूद्दीन हैदर ने बनवाया था। 221 फुट ऊंचा ये घंटाघर रूमी दरवाजे के पास है। ये विक्टोरियन-गोथिक शैली का एक नायाब उदाहरण देता है। कहते हैं इसे लेफ्टिनेंट गवर्नर जार्ज काउपर के स्वागत के लिए बनवाया गया था और हैरत की बात ये है कि इसके सपोर्ट के लिए कोई भी खम्भा नहीं बनाया गया। घंटाघर में लई सुईयां बंदूक धातु से बनी हैं जिसे लंदन के लुईगेट हिल से मंगवाया गया था।
चौदह फीट लंबे व डेढ़ इंच मोटे पेंडुलम के आस-पास फूलों की पंखुड़ियां से बेल बनाई गई है। इसके अलावा भी लखनऊ में कई घंटाघर हैं जैसे हजरतगंज जीपीओ का घंटाघर जिसे 1929 से 1932 के बीच अंग्रेज शासकों ने बनवाया था। ये आज भी अंग्रेजी हुकूमत की दास्तां को याद दिलाता है। जीपीओ ही इस घड़ी की पूरी देखरेख करता है। इसके अलावा हजरतगंज में कई और छोटे घंटाघर हैं जिन्हें अलग-अलग शासकों ने बनवाया था।
130 साल पुराना है उदयपुर घंटाघर
आपने अगर देवानंद की ‘गाइड’ फिल्म देखी हो तो उसका एक फेमस गाना है कांटो से खींच के ये आंचल…इस गाने को उदयपुर के घंटाघर में ही फिल्माया गया था ।
उदयपुर शहर के बीचो बीच खड़ा घंटाघर अपने 130 बरस पूरे कर चुका है। इसे मेवाड़ के राजा सज्जन सिंह के समय में बनवाया गया था। इसके पीछे एक कहानी भी है कि उस समय बोहरा और महाजनो दो समुदाय के बीच विवाद हुआ था जिसके बाद तत्कालीन महाराणा ने दोनों समुदाय को सज़ा के रूप में 5000-5000 रुपए का हर्जाना भरवाया। इस रकम का इस्तेमाल भी इसी में किया गया था। घड़ी के बीच लगी सुईयां लंदन से मंगाई गई थीं। घंटाघर के सामने अब पार्किंग है वहां पहले एक बाज़ार हुआ करता था जिसे इमरजेंसी के दौरान तोड़ दिया गया।
पहले घंटाघर के नीचे एक बाज़ार लगती थी जहां 9 दुकानें होती थी और इसे ‘नौ-हठिया’ कहा जाता था। इसकी बनावट अपने आप में यूनिक है, वैसे तो शहर में और भी कई छोटे-बड़े घंटाघर हैं लेकिन बनावट के मामले में सभी इसके पीछे ही हैं। 50 फीट ऊंचे इस क्लॉक में चार घड़ियां लगीं हैं जो चारों दिशाओं में एक जैसा समय ही दिखाते हैं। इसके बारे में कहा जाता है कि ये शहर की पहली घड़ी थी वरना इससे पहले लोग जल घड़ियों का इस्तेमाल करते थे वो भी सिर्फ चुनिंदा लोग ही। इसके अंदर ‘सगस जी बावजी’ का मंदिर भी बना हुआ है जहां लोग दर्शन के लिए भी आते हैं।
भारत की आजादी के बाद बना देहरादून का घण्टा घर
देहरादून का घण्टा घर शहर के बीचोबी में है और इसमें चार नहीं बल्कि छह घड़ियां हैं। इसे बलबीर टॉवर के नाम से भी जाना जाता है। ये क्लॉक टावर देहरादून के फेमस इमारतों में से एक है। कहा जाता है कि इसे भारत की आजादी के उपलक्ष्य में 2 जुलाई 1948 को बनाया गया था। उस समय उत्तर प्रदेश की गवर्नर सरोजिनी नायडू थीं और इसे बनाने में पूरे पांच साल लगे थे। इसका उद्घाटन लाल बहादुर शास्त्री ने साल 1953 में किया। क्लॉक टॉवर परेड ग्राउंड के पास देहरादून का एक फेमस लैंडमार्क है। चूंकि यह शहर के केंद्र में स्थित है इसलिए यहां शहर के किसी भी हिस्से से आसानी से पहुंचा जा सकता है।
85 मीटर ऊंचे घंटाघर पर गोल्ड प्लेट लगी हैं जिसमें स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लिखे हैं। देहरादून में क्लॉक टॉवर के पास वन अनुसंधान संस्थान, दरबार साहिब, जामा मस्जिद और ओशो ध्यान केंद्र सहित कई खूबसूरत पुरानी इमारतें भी हैं जिन्हें आप देख सकते हैं। यहां का घंटाघर इतिहास का सबसे प्रतिष्ठित स्मारक होने के साथ ही साथ समय की कसौटी पर खरा उतरा है, कई तूफान झेलने के बाद भी आज वैसे का वैसा ही है जिसपर हर दूनाइट गर्व कर सकता है।
मुंबई की बहुमंजिल इमरतों में एक राजाबाई घंटाघर
वैसे तो मुंबई के पास कई ऐसी इमारतें हैं जो पर्यटकों को लुभाती हैं लेकिन राजाबाई घंटाघर की बता ही अलग है। मुंबई विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित राजाबाई टॉवर को 1878 में सर जॉर्ज गिलबर्ट स्कॉट ने डिजाइन किया था। 85 मीटर की ऊंचाई पर खड़ी इस इमारत को ब्रिटिश साम्राज्य के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के संस्थापक प्रेमचंद रॉयचंद ने इसे बनाने में आर्थिक मदद दी थी। इसे बनाने में 2 लाख रुपए की लागत आई थी। इसलिए इसका नाम उनकी मां राजाबाई के नाम पर रखा गया था।
ये भी कहा जाता है कि राजाबाई देख नहीं सकती थीं इसलिए टावर की घंटी से ही उन्हें समय का अंदाजा लगता था और वो उसी के हिसाब से भोजन करती थीं। राजाबाई टॉवर मुंबई के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक है। इसके ग्राउंड फ्लोर पर दो साइड रूम हैं और पूरे टॉवर की ऊंचाई लगभग 29 मंजिली इमारत के बराबर है। हालांकि मुंबई के बहुमंजिली इमारतों के दौर में यह ऊंचाई अब कम लगती है लेकिन फिर भी पुरानी इमारतों का ये एक बेहतरीन उदाहरण है। इस टॉवर की वास्तुकला विनीशियन और गॉथिक शैलियों का संगम है और ये यहां के बफर रंगीन कुर्ला पत्थर से बनाई गई है जिसकी पहचान आज भी फींकी नहीं पड़ी है।
शहर को मार्केट से जोड़ता मेरठ का घंटाघर
मेरठ का घंटाघर भी कई किस्से सुनाता है।।इसकी घड़ी आज भी लोगों को सही समय ही बताती है। एक समय था जब इसी घंटाघर से पूरा मेरठ चलता और रूकता था। इसे ब्रिटिश राज में 1913 में बनवाया गया और इंग्लैंड से वेस्टन एंड वाच कंपनी की यह घड़ी 1914 में लगाई गई। घंटाघर के ठीक बराबर में टाउन हॉल है। शहर के बीचोंबीच होने के कारण घंटाघर में ही आजादी की लड़ाई के लिए सभाएं होती थीं। अगर इसकी खासियत की बात करें तो हर घंटे इसके पेंडुलम की आवाज दस किमी की परिधि तक पहुंचती थी लेकिन उस समय आज की तरह का गाड़ियों का शोर नहीं था। उस समय इसी घड़ी की आवाज को लोगों ने टाइम जानने का जरिया बनाया था।
सभी लोग इसकी आवाज सुनकर ही अपना काम करते थे। मजदूरों के काम करने का घंटा भी इसी के बजने से शुरू और खत्म होता था। 1930 के दशक में सुभाष चंद्र बोस ने टाउन हॉल की जनसभा में जब लोगों के अंदर आजादी को लेकर जोश जगाया था तो दूर-दूर से लोग उन्हें सुनने आए थे। उस समय लोगों ने घंटाघर को खूब सराहा भी था। मेरठ का घंटाघर आज भी काफी फेमस है और इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जाता है कि आज भी फिल्मों की शूटिंग के लिए ये एक बढ़िया लोकेशन है। हाल ही में यहां शाहरूख की फिल्म जीरो की शूटिंग हुई थी, उस समय भी मेरठ का ये घंटाघर काफी फोकस में रहा। इस समय ये घंटाघर शहर को मार्केट से जोड़ता है।