समाज के कुछ गुमनाम नायकों की अनकही कहानियों को दर्शाती शार्ट फिल्में

कहा जाता है कि भारत में कुछ मील पर भाषा, खानपान और पहनावा बदल जाता है, लेकिन सिर्फ़ एक चीज़ नहीं बदलती वह है उन लाखो लोगों की दिनचर्या और काम-काज, जिनके सहयोग से देश प्रगति करता है।
लेकिन इन्हीं के बीच कुछ ऐसे उदाहरण भी है जो हमारे समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं। कूड़ा बीनने से लेकर नदियों की गंदगी साफ़ करने या मानव तस्करी के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग, जिनका ज़िन्दगी की तरफ जज़्बा देखते ही बनता है। लेकिन कुछ वजहों से ऐसी कहानियां या उनसे जुड़े लोग समाज के सामने नहीं आ पाते या कहीं गुमनामी में खो जाते है।
देश में बीते सालों में कुछ ऐसे फिल्म निर्माताओं की वृद्धि हुई है जिन्होंने ऐसी कहानियों को अपने कैमरे में कैद किया है और इन कहानियों से जुड़े गुमनाम चेहरों को दुनिया के सामने एक नयी पहचान दिलवाई है। आज हम कुछ ऐसे ही निर्माता और उनकी सिनेमा से आपको रूबरू करवाते हैं।
यमुना के गोताख़ोर : निर्माता - मेघातिथि कबीर
यह कहानी शंकर की है जिसका लगभग सारा जीवन यमुना के घाटों के बीच गुज़रा है। वैसे तो शंकर एक ग़ोताखोर हैं, लेकिन जो काम वो करता है वह कुछ अलग और जोख़िम भरा है।
इस कहानी की संवारना सामाजिक फ़िल्मकार मेघातिथि कबीर ने की है। कहानी दिल्ली में स्तिथ यमुना के उन युवा गोताखोरों पर आधारित हैं, जिनका काम हर रोज़ नदी में गोता लगा कर उसे साफ़ करना है जो काम वह कई सालों से बिना किसी सुरक्षा उपकरणों की मदद से कर रहे हैं। प्लास्टिक का कूड़ा और नदी में मौजूद हर तरह की गन्दगी वह अपने नंगे हाथो से द्वारा करा करते है।
मेघातिथि 2015 से ही यमुना के घाटों पर घूम कर वहां के गोताखोरों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का जायज़ा लिया इसके बाद इन्होंने उन्होंने यमुना के गोताख़ोर शीर्षक नाम से एक लघु फिल्म बनाई।
दिल्ली के आस-पास के गांवों का मुयायना करते हुए मेघातिथि ने पानी का संकट देखा और इसी परेशानी के बीच गोताखोरों की यह कहानी एक उम्मीद की किरण थी। सफाई का काम करने वाले ये लोग बिना किसी वेतन के यह काम कर रहे हैं। मेघातिथि का मानना है कि एक पढ़े—लिखे तबके द्वारा ये समझना होगा की गोताखोरों का यह काम किसी फायदे के लिए नहीं किया जा रहा बल्कि लोगों को प्रकृति के बचाव के लिए जागरुकता लाने के लिए किया जा रहा है।
प्रॉबब्ली पैराडाइस : निर्माता : रवि अय्यर
मुंबई के एक दूर दराज़ हिस्से में स्तिथ कर्जत जगह के 1.5 एकड़ पर मौजूद एक पशु आसरा दिखाई पड़ता हैं जहाँ कई सरे पालतू कुत्ते, बिल्ली, घोड़े, सूकर जैसे पशु दिखते हैं। जिनके लिए यह आसरा किसी जन्नत से कम नहीं है, जो फिल्म का शीर्षक भी है।
रवि अय्यर द्वारा 2015 में बनायीं गयी यह फिल्म एक पारसी महिला रोक्सेन डावर के ऊपर आधारित है। जिन्होने बेसहारा, बीमार और घायल जानवरों के लिए एक आसरा खोला। 60 साल इस उम्र में उनका यह कदम बेहद सराहनीय है।
रोक्सन के लिए इस आसरे को खड़ा करना इतना आसान नहीं था। उनके मुताबिक इसमें हर महीने 6 लाख का खर्चा आता है, लेकिन आसरे में बढ़ते जानवरों ने उनको और प्रोत्साहित किया। रवि की इस फिल्म का काफी असर भी हुआ। आसरे का कामकाज सही रूप से चलता रहे इसके लिए लोगों ने मदद के लिए कदम बढ़ाए हैं। फिल्म बनाते समय रोक्सन से मिले रवि आज उनके एक अच्छे मित्र बन गए हैं। छुट्टियों में रवि का ज्यादातर समय प्रॉबब्ली पैराडाइस में ही गुज़रता है।
प्रतिमा : निर्माता : सुदेशना गुहा रॉय
साड़ी पहने एक अम्मा जिनके सर पर एक पट्टा, हाथ में बीड़ी लिए आवार कुत्तों के झुंड की तरफ जा रही हैं। अम्मा एक तरफ 300 आवारा कुत्तों को खाना खिला रहीं है तो वहीं दूसरी तरफ वे एक गाड़ी वाले पर चिल्ला रही हैं जिसने एक कुत्ते पर टायर चढ़ा दिया है।
37 साल पहले प्रतिमा देवी ने पश्चिम बंगाल स्तिथ नंदीग्राम गांव छोड़ने के बाद वह दिल्ली आ गयी। सात साल की उम्र में शादी हुई और 19 साल की उम्र तक वो तीन बच्चों की मां बन चुकी थीं। बच्चों के दूसरी जगह बस जाने के बाद प्रतिमा अपनी उसी झोपड़ी में ही रही और लगभग 300 आवारा कुत्तों की देखभाल करना ही पसंद किया।
यस फाउंडेशन के द्वारा सुदेशना की फिल्म को सम्मानित भी किया गया जिसके बाद सुदेशना और उनकी सहयोगियों ने प्रतिमा को एक चाय का ठेला लगाने में भी मदद की। प्रतिमा के लिए क्राउड फंडिंग द्वारा 83 हज़ार रुपए की रकम भी जुटाई। जिससे प्रतिमा ने अपने कुत्तों की देखभाल में खर्च किया।
हमारी मुस्कान : निर्माता : लीना केजरीवाल
लीना संस्था ने 'हमारी मुस्कान' की शुरुआत वर्ष 2012 में की जहाँ वे छोटे गरीब बच्चों की फोटोग्राफी कार्यशालाएं लिया करती थी। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात कोलकाता के सोनागछी जिलें की रहने वाली 14 साल की जया से हुई जिसे पहले पैसे का लालच देकर एक दलाल द्वारा बेच दिया गया था।
जया जैसी कई ऐसी लड़कियां है जिन्हे देहव्यापार में फंसा दिया जाता है। जया फिलहाल एक सामाजिक संस्था से जुड़कर अपने आगे आने वाली पीढ़ी को मानव तस्करी और देह व्यापार से बचाने का प्रयास कर रही है।
फिल्म निर्माता लीना के मुताबिक़ उनको अपनी इस फिल्म के जरिए डिजिटल मंच की शक्ति का अंदाज़ा हुआ जिससे ऐेसे विषयों पर बातचीत करने और लोगों की राय जानने का मौका मिला।
ज़ाहिर तौर पर ये मानना पड़ेगा की इतने छोटे बजट की फिल्में भी हमारे समाज के अच्छे और धरातल से जुड़े विषयों पर रोशनी डालती हैं साथ ही इससे जुड़े लोगों के जीवन पर भी असर डालती हैं। अब चाहे इसमें कहानी के किरदार हो या कहानी बनाने वाले।
संबंधित खबरें
सोसाइटी से
अन्य खबरें
Loading next News...
