Film Review: दमदार अभिनय, देश प्रेम और प्रेम का ट्रैंगल है 'रंगून'

विशाल भरद्वाज का नाम आते ही ओंकारा, मकबूल, हैदर, कमीने जैसी उम्दा फिल्में याद आ जाती हैं। 2006 में 'ओंकारा' की रिलीज के ठीक बाद विशाल ने 'रंगून' को डायरेक्ट करने का प्लान किया था। लेकिन किन्ही कारणों से वो हो नहीं पाया। अब लगभग 11 साल के बाद 'रंगून' सामने आई है। इसका स्क्रीनप्ले मैथ्यू रॉबिन्स ने ही लिखा है जिन्होंने विशाल की फिल्म '7 खून माफ' पर भी काम किया था।
1940 के दशक की इस कहानी को अपने अंदाज में दिखा पाने में क्या विशाल भारद्वाज सक्षम हो पाए हैं?
फिल्म की कहानी
यह कहानी द्वितीय विश्व युद्ध (1939 -1945 ) के दौरान की है। उस समय ब्रिटिश सेना की भारत पर हुकूमत थी और भारत -बर्मा की सरहद के पास के जंगलों में इंग्लिश और भारत की सेना का मनोरंजन मिस जूलिया (कंगना रनोट) करती हैं।
जूलिया की जिंदगी की भी एक अलग कहानी है कि वो किस तरह ज्वाला देवी से जूलिया बनी। जूलिया का फिल्म प्रोड्यूसर रुस्तम बिलिमोरिया उर्फ रुसी (सैफ अली खान) से अफयेर होता है, और जूलिया की ख्वाहिश मिसेज बिलिमोरिया बनना है। एक बार मेजर जनरल हार्डिंग (रिचर्ड मैकेबे) के कहने पर जूलिया को बर्मा बॉर्डर पर सैनिकों का मनोरंजन करने के लिए भेजा जाता है।
इसी दौरान उसकी मुलाकात जमादार नवाब मलिक (शाहिद कपूर) के साथ होती है और परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि जूलिया और नवाब में एक अलग तरह का प्यार हो जाता है। कहानी में एक तरफ जहां वर्ल्ड वॉर में भारत की सेना (जो ब्रिटिश के अन्तर्गत आती थी) के नवाब मलिक कुछ अलग करने की चाह रखते हैं वहीँ जूलिया की क्या हिस्सेदारी होती है, उसे दर्शाया गया है।
क्यों देख सकते हैं फिल्म
1- वर्ल्ड वॉर 2 के दौरान होने वाली घटनाओं को एक स्टोरी के तहत विशाल भारद्वाज ने बताने की कोशिश की है जो शायद आपको इतिहास के पन्नों की तरफ खींच कर ले जाती है। फिल्म पर अच्छी रिसर्च की गई है।
2- फिल्म को 40 के दशक के हिसाब से ही रखा गया है जिसकी वजह से रिसर्च वर्क और एक-एक चीज को उसी लिहाज से परोसने की कोशिश की गई। इससे फिल्म की दर्शनीयता बढ़ी है।
3- कंगना रनोट की एक बार फिर से काफी सराहना की जा सकती है, उन्होंने बहुत ही उम्दा अभिनय किया है। मेजर जनरल के किरदार में ब्रिटिश एक्टर रिचर्ड मैकेबे बेहतरीन हैं। सैफ और शाहिद ने भी शानदार अभिनय किया है।
4- फिल्म में पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी और खासतौर पर बॉर्डर के पास का फिल्मांकन गजब का है।
कमजोर कड़ियां
1- फिल्म की कमजोर कड़ी इसकी लेंथ है, जो फर्स्ट हाफ में तो बहुत सटीक है, लेकिन इंटरवल के बाद काफी खिंची लगती है। हालांकि एडिटिंग को और भी बेहतर किया जा सकता था।
2- फिल्म के गाने और बैकग्राउंड स्कोर, कहानी के साथ-साथ चलते हैं और रफ्तार बनाए रखते हैं। बीच-बीच में आने वाले गानों के टुकड़े भी अच्छे लगते हैं। लेकिन कोई यादगार नहीं है।
3- फिल्म में रोमांस है, लेकिन इमोशन नहीं हैं।
4- फिल्म का क्लाइमैक्स काफी अलग दर्शाने की कोशिश की गई है। यह आपको विशाल वाला फ्लेवर जरूर महसूस कराती है लेकिन क्लाइमेक्स काफी खिंचा महसूस होता है। इसकी शार्प एडिटिंग बहुत जरूरी थी।
5- यह फिल्म वर्ल्ड वॉर, आजाद हिन्द फौज, ब्रिटिश शासन, रोमांस, धोखा, देशभक्ति - सब कुछ एक ही वक्त पर दिखाने की कोशिश में फिल्म भटक गई है।
रेटिंग: 2.5 *
फिल्म का ट्रेलर
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