किताबों से लगता था डर, अब चला रहे हैं 150 करोड़ रुपये की कंपनी

महाराष्ट्र के रहने वाले अरुण के जीवन की कहानी सुनकर आप हैरान रह जाएंगे। मात्र दसवीं पास करने के बाद अरुण अपने चाचा की दुकान पर बैठने लगे थे। उनके चाचा की चप्पल और जूते की दूकान थी। खाड़की इलाके के मराठी परिवार में पले बढ़े अरुण के पिता कैंटोमेंच बोर्ड में हेल्थ सुपरवाइजर थे।
शुरू से ही बिजनेस में दिलचस्पी होने के कारण अरुण का मन पढ़ाई में कम लगता था। जबकि उनकी मां चाहती थीं कि वे पढ़ाई पूरी करने के बाद बिज़नेस करें। लेकिन उस वक्त करियर के बहुत ज्यादा ऑप्शन नहीं हुआ करते थे।
किताबों को देखकर डरते थे अरुण
अरुण अपने बड़े भाई की मेडिकल की किताबों को देखकर ही डर जाते थे। उनके बड़े भाई अब एक डॉक्टर हैं। उनके घरवालों ने उन्हें इंजिनियरिंग करने के लिए कहा। उन्होंने शॉर्टकट अपनाते हुए सीधे गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक में मकेनिकल ब्रांच में एडमिशन ले लिया। लेकिन उनका दिल तो कहीं और ही थी। उनके पापा के पास रॉयल इनफील्ड की बुलेट थी, जिसे चलाते हुए वे दुनिया घूमने का सपना देखते रहते थे।
किराए की दुकान में STD बूथ चलाया
एक समय ऐसा भी था, जब अरुण ने टाटा की कंपनी टेल्को में काम किया। वहां काम करते वक्त उन्हें एहसास हुआ कि ऐसी नौकरी से वे अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच सकते। उन्होंने ये नौकरी भी छोड़ दी और सुदर्श केमिकल में काम करना शुरू कर दिया। उस वक्त उनकी सैलरी सिर्फ 1800 रुपये महीने थी। केमिकल कंपनी में काम करते वक्त अरुण को विदेश घूमने का मन करने लगा। क्योंकि उनके सीनियर अधिकारी अक्सर विदेश घूमा करते थे। इसके साथ ही वह एक साइड बिजनेस भी करना चाहते थे। उन्होंने अपने पिता से 200 रुपये उधार लिए और एक किराए की दुकान में STD बूथ शुरू कर दिया। इसके बाद उन्होंने लंबी दूरी के बस ऑपरेट करने वाली प्राइवेट कंपनी के टिकट एजेंट के तौर पर भी काम किया।
रेंटल कार का बिजनेस शुरू किया
उस वक्त ऑनलाइन टिकट की व्यवस्था नहीं थी और वह कमीशन पर रेलवे के टिकट भी काटते थे। इस वक्त वह सुदर्शन केमिकल में काम भी कर रहे थे और ये सब काम भी देख रहे थे। 1994 में उन्होंने कार रेंटल के बिजनेस में कदम रखा। उनकी कंपनी के अधिकारी ही उनके पहले क्लाइंट्स थे। धीरे-धीरे उन्होंने कुछ और कारें खरीदीं और रेंटल का बिजनेस आगे बढ़ाया। 1996 में उन्होंने अपनी पहली कार खरीदी जो कि एक सेकेंड हैंड फिएट थी। इसके बाद उन्होंने एक सेकेंड हैंड ऐम्बैस्डर खरीदी जो अधिकतर सरकारी ऑफिसों में काम में लाई जाती थी।
1995 में लव मैरिज की
उस दौरान अरुण की दिनचर्या बेहद दिलचस्प थी। वह सुबह 7 बजे से लेकर रात 1 बजे तक काम में लगे रहते थे। पहले वे केमिकल कंपनी में जाते थे उसके बाद कुछ वक्त फैमिली की फुटवियर शॉप में बिताते और उसके बाद रात में अपनी एजेंसी में। इसलिए उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दिया और एक इंस्टीट्यूट से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन कोर्स में पीजी डिप्लोमा कर लिया। इसी दौरान उनकी मुलाकात एक और स्टूडेंट भारती से हुई। दोनों में प्यार हुआ और उन्होंने 1995 में शादी कर ली।
1995 के बाद अरुण पूरी तरह से अपने बिजनेस में लग गए। उन्होंने तीन और कार लीं और अपनी चॉल के पीछे ही एक ऑफिस बनाया। वह वहीं पर सोते थे और नहाते भी थे। उस वक्त बीपीओ सेक्टर बूम कर रहा था और अरुण को कई कंपनियों से कैब के लिए ऑफर आ रहे थे। इसका अरुण ने जमकर फायदा उठाया और 2001 आते-आते उनके पास 70-80 कारें हो गई थीं। लगभग 30 कंपनियों में उनकी कारें लगी थीं और सालाना लगभग 1 करोड़ का टर्नओवर भी मिलने लगा।
महिलाओं को ले जाने वाली कारें महिलाएं चलाती हैं
आज उनके पास हर कैटिगरी में लगभग 350 कारें हैं। उनकी पत्नी भारती और वे खुद इस कंपनी के डायरेक्टर हैं। उनकी कंपनी ने विंग्स सखी नाम से एक कार रेंटल का आइडिया निकाला है, जिसमें महिलाओं को लाने ले जाने के लिए महिलाएं ही कार चलाती हैं। इसके अलावा वे विंग्स रेनबो नाम की एक सर्विस चलाते हैं जिसमें LGBT कम्यूनिटी के लोग ड्राइवर होते हैं। 2006 में अरुण ने रेडियो कैब सर्विस शुरू की थी। उस वक्त ओला और ऊबर जैसी कंपनियों का पता भी नहीं था। 2008 में उनका टर्नओवर डबल हो गया और लगभग 2500 कारें 70 कंपनियों में चलने लगीं। 2014-15 में उनकी कंपनी का टर्नओवर 130 करोड़ प्लस था।
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