शहर का ग्लैमर छोड़ गांव पहुंची फैशन डिजाइनर श्वेता, पालने लगी बकरी

बड़े शहर में फैशन डिजाइनिंग का ग्लैमर से भरपूर जगमगाता कॅरिअर छोड़ कर गांव में बकरी फार्म खोलना। बात कुछ अजीब-सी है, लेकिन यह क्रांतिकारी कदम उठाकर श्वेता तोमर आज उन लोगों के लिए एक रोशनी की किरण बन चुकी हैं जो सफलता के लिए छोटे शहरों को छोड़ बडे़ शहरों का रुख करते हैं।
बस एक पल में बदल गई जिंदगी
एनआईआईएफटी मोहाली से फैशन डिजाइनिंग करने के बाद देहरादून निवासी श्वेता तोमर अपना बुटीक चला रही थीं। वर्ष 2015 में आईटी कंपनी में प्रोफेशनल रॉबिन स्मिथ से शादी के बाद श्वेता बेंगलुरु शिफ्ट हो गईं। कुछ समय बाद श्वेता वहीं अपना काम करने के बारे में सोचने लगीं। इसी दौरान श्वेत अपने पति के साथ घर के पास एक फार्म पर गईं, जहां से उनकी जिंदगी ने एक नया मोड़ ले लिया। श्वेता को वहां इतना अच्छा लगा कि उन्होंने वहां रोजाना जाना शुरू कर दिया। एक साल तक लगातार जाने से श्वेता को बकरियों को रखने की पूरी जानकारी हो गई। इसके बाद उन्होंने अपने पति से बकरी फार्म खोलने के बारे में बात की। रॉबिन उनकी इच्छा जानकार न केवल खुश हुए बल्कि उन्होंने प्रोत्साहित भी किया। मगर, श्वेता इस काम को शहर में नहीं बल्कि गांव में करना चाहती थीं, ताकि वह उन लोगों को यह साबित कर सकें कि रोजगार के लिए गांव से दूर जाना जरूरी नहीं है।
आसान नहीं थी राह
श्वेता बताती हैं कि पति का साथ मिलने के बावजूद फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करने के बाद बकरी फार्म खोलने के फैसले पर परिचितों व रिश्तेदारों ने सवाल उठाए। मगर, कहते हैं कि जहां चाह वहां राह। इसी बात पर अमल करते हुए देहरादून के रानीपोखरी स्थित लिस्तरापुर गांव में सितंबर 2016 में श्वेता और रॉबिन ने 250 बकरियों के साथ प्रेम एग्रो फार्म के नाम से अपने काम की शुरुआत की। इसके लिए 30 लाख का लोन लिया। हालांकि, बैंक अथॉरिटीज भी आश्चर्य में थे, लेकिन हमनें उन्हें निराश नहीं किया। दरअसल, इतना बड़ा लोन लेने के बाद मैंने खुद से न हारने का वादा किया था, क्योंकि मेरे पास कोई गुंजाइश नहीं थी।
बच्चों की तरह रखते हैं ख्याल
श्वेता के मुताबिक, शुरुआत काफी मुश्किल थी, क्योंकि आसपास के जंगल से हाथी और हिरणों की आवाजाही बनी रहती थी। मगर, हमने हिम्मत नहीं हारी और आज हमारे तीन हजार स्क्वायर फीट के फार्म में बेहतर संसाधन हैं। यहां जमीन से कुछ फीट ऊपर बने प्लेटफार्म पर बकरियों का रखा जाता हैं ताकि उनका मल-मूत्र जालीदार फर्श से नीचे गिर जाता है और साफ-सफाई बरकरार रहती है। श्वेता बताती हैं कि यहां उच्च नस्ल की देसी बकरियां ही पाली जाती हैं जो साल में सिर्फ दो बच्चों को जन्म देती हैं, कृत्रिम गर्भाधान से हम काफी दूर हैं। यहां बकरियों को बच्चों की तरह रखा जाता है। उनके खाने पीने की पूरी व्यवस्था हर समय रहती है। वह बताती हैं कि गर्भवती बकरियों व नए जन्मे मेमनों के लिए यहां विशेष व्यवस्था रहती है।
कसाइखाने को नहीं देती हैं बकरियां
गांव के परिवेश में पली बढ़ी श्वेता अपने फार्म के बकरियों को कसाइखानों में नहीं देती हैं, बल्कि यह सिर्फ उन किसानों को देतीं हैं जो उनको पालते हैं। युवाओं के लिए मिसाल बन चुकीं श्वेता कहती हैं कि जो लोग पशुओं से प्रेम करते हैं वे इस व्यवसाय को आसानी से कर सकते हैं। 3-4 लाख रुपये सालाना के टर्नओवर से खुश श्वेता का कहना है कि 8-10 लाख रुपये में 20 बकरियों के साथ ही इसे आसानी से शुरू किया जा सकता है। इसके साथ उन्होंने थोड़ी जमीन पर खेती भी शुरू कर दी है, जिसमें वह बकरियों के मल से बनी खाद का प्रयोग करती हैं।
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