
गन्ने का कम उत्पादन, रिकवरी दर में गिरावट, निर्यात की अनुमति और एथनाल में अत्यधिक इस्तेमाल के चलते चीनी की कीमतें चढ़ने लगी हैं। नेशनल कोआपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज फेडरेशन के अनुसार, इस साल अक्तूबर 2024 से सितंबर 2025 के बीच देश का कुल चीनी उत्पादन 2.7 करोड़ टन रहने का अनुमान है।
चीनी उत्पादन का यह आंकड़ा पिछले सीजन से 49 लाख टन कम है। पिछले एक महीने के दौरान चीनी की कीमतों में लगभग दो प्रतिशत की तेजी आई है। आगे भी राहत की उम्मीद नहीं है। प्रतिकूल मौसम एवं बीमारी के चलते गन्ने के उत्पादन में गिरावट के साथ-साथ चीनी की रिकवरी दर में भी कमी देखी जा रही है। इससे चीनी उद्योग की चिंता बढ़ गई है।
इंडियन शुगर एंड बायो एनर्जी मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन (इस्मा)ने बताया है कि चालू 2024-25 सत्र में 15 फरवरी 2025 तक चीनी उत्पादन 197.03 लाख टन तक ही पहुंच पाया है। यह बीते साल की तुलना में 12 फीसदी की गिरावट को दर्शाता है। यूपी समेत सभी प्रमुख राज्यों में बीते साल की तुलना में चीनी उत्पादन कम हुआ है। हालांकि, इस्मा ने कहा है कि पेराई सत्र उम्मीद के अनुरूप आगे बढ़ेगा, जिससे चीनी उत्पादन में बढ़ोत्तरी की संभावना है और आपूर्ति में बाधा नहीं आएगी। बहरहाल, गन्ना उत्पादन में गिरावट के चलते राज्यों में 72 शुगर मिलें इस बार जल्दी बंद हो गई हैं।
12 राज्य गन्ने के प्रमुख उत्पादक
नेशनल फेडरेशन ऑफ को-आपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज लिमिटेड के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनवरे के अनुसार देश में 12 राज्य प्रमुखता से गन्ने का उत्पादन करते हैं। रिकवरी के मामले में इनमें से आठ राज्यों का हाल बुरा है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार और तेलंगाना को छोड़कर किसी राज्य में रिकवरी दर नौ प्रतिशत तक नहीं पहुंच पाई है।
सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश की रिकवरी में 0.85 प्रतिशत की गिरावट है। दूसरा महाराष्ट्र है, जहां 0.15 प्रतिशत की गिरावट है। मध्य प्रदेश और हरियाणा की स्थिति भी अधिक खराब है। यहां रिकवरी दर में लगभग एक प्रतिशत की कमी है।
चीनी मिल संगठनों का कहना है कि उत्पादन लागत में करीब 150 रुपये प्रति क्विंटल तक वृद्धि हो गई है, जबकि चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य (एमएसपी) पिछले पांच वर्ष के आंकड़े पर स्थिर है। किसानों के घाटे को देखते हुए अगर गन्ने के परामर्श मूल्य में वृद्धि की गई तो चीनी मिलों का घाटा बढ़ जाएगा।
इसलिए उनकी मांग चीनी की एमएसपी बढ़ाने की है, लेकिन ऐसा होने पर मिलों और किसानों के नुकसान की भरपाई तो की जा सकती है, मगर उपभोक्ताओं की जेब ढीली हो सकती है।