मोदी-शाह ही नहीं, यह गुजराती लड़का भी है 'गुरुभाई'

6 साल की उम्र में आप क्या कर रहे थे? शायद लिखना भी सही से नहीं सीख पाए होंगे। अब जरा वलसाड (गुजरात) के बिनेश देसाई से मिलिए। बिनेश जब 6 साल के ही थे तो कागज और च्यूइंग गम से एक इनोवेशन प्लान कर रहे थे। और आज; महज 23 साल की उम्र में बिनेश ने गुजरात, महाराष्ट्र और आस-पास के इलाकों में 1000 से ज्यादा टॉइलेट्स बना डाले हैं। वह भी वेस्ट यानी कूड़े से। सबसे खास बात यह है कि बिनेश ने अपने इस इनोवेशन के जरिए गांव की तमाम अनस्किल्ड महिलाओं को भी सशक्त करने का काम किया है।
कहानी शुरू से, 6 साल में कैसे?
आप सोच रहे होंगे कि आखिर 6 साल का बच्चा इतना भी तेज कैसे हो सकता है। दरअसल, बिनेश से यह इनोवेशन खेल-खेल में हो गया। बिनेश बताते हैं, 'एक रोज मैं क्लास में बैठा च्यूइंग गम चबा रहा था तभी क्लास शुरू हो गई। अब मैं थूकने बाहर तो जा नहीं सकता था। मैं पेपर फाड़ा और उसमें च्यूइंग गम लपेटकर पैंट की पॉकेट में रख लिया। शाम को जब पॉकेट में हाथ डाला तो देखा वह ईंट जैसा सख्त हो चुका था।' यहीं पर बिनेश का गुजराती दिमाग काम कर गया। बिनेश ने सोचा क्यों न इस पर काम किया जाए। शुरुआत तो खेल-खेल में ही हुई लेकिन एक्सपेरिमेंट जारी रहे। नतीजतन, 16 साल की उम्र में ही बिनेश ने अपनी कंपनी शुरू कर दी।
कैसे मिला इतना बड़ा प्लेटफॉर्म?
सवाल उठता है कि 16 साल के बच्चे के पास आइडिया तो हो सकता है लेकिन काम शुरू करने के लिए तो पूंजी चाहिए न। इसका जवाब भी 'गुजराती' शब्द में छिपा है। बिनेश के पास दिमाग शानदार था, लेकिन ज्यादातर सक्सेस स्टोरीज के पीछे जीतोड़ मेहनत भी होती है। बिनेश के साथ भी यही हो रहा था। शुरुआत बेहत मुश्किल थी। उन्होंने च्यूइंग गम की जगह दूसरा सब्सटेंस खोज निकाला था। रिसर्च भी पक्की कर ली थी। अब उद्योगपतियों को आइडिया समझाकर उन्हें मनाना था कि उनकी फैक्ट्रियों से निकलने वाला पेपर वेस्ट कितना काम आ सकता है।
और फिर शुरू हुआ काम, काम और काम
बिनेश ने एक बार उद्योगपतियों को समझाने में कामयाबी हासिल क्या की, उनकी तो गाड़ी चल पड़ी। और ऐसी चली कि अब चलती ही जा रही है। उनके पास कंपनी थी, कॉरपोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के तहत फंड्स भी और प्रॉसेस तो था ही। बिनेश ने खास 'पी-ब्लॉक ब्रिक्स' बनाने का काम शुरू कर दिया और महज 7 साल में गुजरात, हैदराबाद और महाराष्ट्र के पाली में 1000 से ज्यादा टॉइलेट्स बनाकर तैयार कर दिया। खास बात यह है कि जिन ईंटों से बिनेश ने काम शुरू किया, वे पारंपरिक ईंटों से ज्यादा मजबूत और टिकाऊ साबित हुईं।
क्यों खास हैं 'पी-ब्लॉक ब्रिक्स'?
पी ब्लॉक ब्रिक्स कागज से जरूर बनते हैं लेकिन न तो इनमें कीड़े लगते हैं न ही इनके साथ आग का खतरा रहता है और सबसे बड़ी बात यह है कि ये काफी सस्ते भी हैं। इतना ही नहीं, भूकंप के लिहाज से संवेदनशील जगहों पर भी ये ब्रिक्स काफी कारगर साबित होते हैं। बिनेश के मुताबिक ये ईको-फ्रेंडली हैं और इनकी कम्प्रेसिव स्ट्रेंथ भी ज्यादा है। खास बात यह भी है कि इन्हें लगाने में न तो सीमेंट चाहिए, न लकड़ी और न ही कंक्रीट।
पूरे होने लगे एक के बाद एक मुकाम
बिनेश ने वेस्ट से ईंट बनाने के बाद नए मुकाम हासिल करने शुरू कर दिए। उन्होंने 12 अगस्त, 2016 को ईको इलेक्टिक टेक्नॉलजी नाम की एक और कंपनी शुरू की। इसके तहत उन्होंने लाइट्स नाम का नया इनोवेशन किया। अपने नाम को सही साबित करते हुए बिनेश ने वेस्ट मटीरियल से टेबल लैंप, टाइल्स और अलग-अलग प्रॉडक्ट्स पर काम शुरू कर दिया है। बिनेश ने तरक्की जरूर हासिल कर ली है लेकिन अब भी वे अपनी जड़ से नहीं हटे हैं। आज भी वे गांव की अनस्किल्ड महिलाओं को काम सिखा रहे हैं और ये सारे काम उन्हीं महिलाओं के हाथों हो रहे हैं।
साभार- TheLogicalIndian
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