किसानों की ताकत से डरना जरूरी है

यूं तो 21वीं सदी का 19वां वर्ष शुरू हो रहा है, लेकिन विडंबना ये है कि आज भी हमारे देश में किसानों को वो अधिकार, वो दर्जा नहीं मिला जिसके सही मायने में वो हकदार हैं। इसके बावजूद 2018 में किसानों ने यह दिखा दिया कि उनकी अवहेलना करना सरकार को कितना भारी पड़ सकता है।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले सरकार ने किसानों की आमदनी बढ़ाने के कई वादे किए थे। 2022 तक आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य भी रखा, लेकिन इतना वक्त बीत जाने के बाद भी उनकी दशा में कोई बदलाव नहीं आया। जीएसटी लगने के बाद खेती के उपकरणों और इसमें इस्तेमाल की जाने वाली चीजों के दाम और बढ़ गए। फसल की एमएसपी यानि न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। इस बीच कई किसान आंदोलन भी हुए। तमिलनाडु के किसानों ने कई दिनों तक दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया। महाराष्ट्र में डेयरी किसानों ने सही दाम न मिलने पर दूध सड़कों पर बहा दिया। पिछले साल आलू किसानों ने उचित मूल्य न मिलने पर सड़कों पर आलू फेंक दिए। फिर 29-30 नवंबर को तमाम वामपंथी संगठन छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों को लेकर दिल्ली आए। महाराष्ट्र के किसानों को प्याज की कीमत एक रुपया मिलने की कई खबरें मीडिया में आईं, लेकिन कभी इसे सरकार की मजबूरी बताकर तो कभी विपक्षी दलों की साजिश बताकर सरकार नजरअंदाज करती रही।
2017 में यूपी में योगी आदित्यनाथ ने कुर्सी संभाली तो उन्होंने अपना वादा पूरा भी किया। उन्होंने लगभग 86 लाख किसानों का 36 हजार करोड़ का माफ किया था, लेकिन कुछ ऐसी खबरें भी आईं जहां किसानों का सिर्फ एक रुपये का कर्ज ही माफ हुआ। खबरों की मानें तो यूपी के विभिन्न विभागों में किसानों की नौ लाख अर्जियां कर्जमाफी को लेकर लंबित हैं।
2 अक्टूबर को दिल्ली में किसान अपनी मांगों को लेकर इकट्ठा हुए। उनकी फरियाद सुनने की बजाय पुलिस से लाठीचार्ज करवाकर उन्हें दिल्ली से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और इस सबका खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ा हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता बीजेपी के हाथ से निकलकर कांग्रेस के हाथ में जाने का बड़ा कारण किसान ही रहे। इन तीनों ही राज्यों में मुख्यमंत्रियों ने सत्ता संभालने के 24 घंटे के अंदर अपने-अपने यहां किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी। ऐन लोकसभा चुनाव से पहले के इस घटनाक्रम से किसानों का मुद्दा सभी राजनीतिक दलों के लिए खास हो गया है।अब ये बात केंद्र सरकार को भी समझ में आ रही है।
हालांकि, यूपीए सरकार ने भी किसानों के लिए कुछ खास नहीं किया था। कंप्यूटर, मोबाइल, मारुति और मेट्रो जैसी चीजें तो यूपीए लेकर आ गई लेकिन किसानों की खुदकुशी करने की खबरें लगातार आती रहीं। अब जब 2019 के लोकसभा चुनाव का एजेंडा तय किया जा रहा है तो सरकार को किसानों की याद आ गई है। किसानों की बात भी हर चुनाव में की जाती है लेकिन उनका जिक्र सारी पार्टियां सरसरी तौर पर करती रही हैं। इस बार सब बदला हुआ नजर आ रहा है।
केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष की कथित एकजुटता की तेज चर्चा के बावजूद अगले आम चुनाव का एक जमीनी अजेंडा भी अभी से बनने लगा है। सरकार ने भी किसानों को लुभाने के लिए पूरी ताकत लगाना शुरू कर दी है। हालांकि, अब चुनाव में इतना समय नहीं बचा है कि सरकार किसानों के लिए बड़ी योजनाएं बना कर उन्हें धरातल पर ला सके लेकिन बटाईदारों, छोटे और भूमिहीन किसानों के लिए फसल बीमा और कर्जमाफी जैसे लुभावने वादे सरकार हाल ही में कर चुकी है। सही समय पर कर्ज चुकाने वाले किसानों का ब्याज माफ करने की घोषणा भी सरकार कर चुकी है। उम्मीद है कि सरकार विधानसभा चुनावों में मिली हार से कुछ सबक लेगी और किसानों के मुद्दे को प्राथमिकता देते हुए उनके लिए कुछ काम करेगी।
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