अभिनेता तो नहीं, क्या हम इरफान जैसे इंसान भी बन सकते हैं?
Posted By: India Wave
Last updated on : May 01, 2020
रोहित मिश्र, पत्रकार, फिल्म समीक्षक
हम-आप जैसे लाखों मिडियोकर लोग अपने सिस्टम में खुद की 6 दिन या 6 हफ्ते की उपेक्षा भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। खुद की उपेक्षा करने वाले उस सिस्टम को लेकर एक टॉक्सिक हमारे मन में पलने लगता है। ये तेजाब सिस्टम का कुछ बिगाड़ या संवार तो नहीं पाता लेकिन यह हमें खुद ही गलाने लगता है। दिमाग और पर्सनाल्टी दोनों स्तरों पर। उपेक्षा की कुंठा बहुत हद तक प्रतिभा का गला घोट देती है।
अब आइए इरफान की जिंदगी को देखें। एक कलाकार के रुप में उसे अभिनय करते हुए नहीं बल्कि एक व्यक्ति के रुप में। देखें उसके धैर्य को और अपने प्रोफेशन को लेकर उसकी प्रतिबद्धता और अदब को।
1988 में रिलीज हुई फ़िल्म 'सलाम बांबे' से इरफान को फिल्मी ब्रेक मिल जाता है। भले ही वह मल्टीप्लेक्स और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म का जमाना नहीं था लेकिन सलाम बांबे यूंही गुजर जाने वाली कोई 'टॉम डीक एंड हैरी' फिल्म नहीं थी।
वह मीरा नायर की फिल्म थी। दर्शक ना सही पर सुर्खियां बटोरने वाली फिल्म थी, वह ऑस्कर के अंतिम चरणों तक पहुंचने वाली चुनिंदा भारतीय फिल्मों में से एक थी। उस फिल्म में इरफान को नोटिस किया गया। उसकी चर्चा हुई लेकिन उसे काम फिर भी नहीं मिला।
1967 में पैदा हुए इरफान तब 21 बरस थे। उस नौजवान को फिर से हमने बड़े पर्दे पर 15 साल बाद 2003 में रिलीज हुई फिल्म हासिल में देखा। (एकाध फिल्मों में गेस्ट एपीरेंस को छोड़कर) तब उनकी उम्र 36 बरस की हो चुकी थी।
कल्पना करके देखिए कि एक प्रतिभाशाली कलाकार जिसे अपना काम आता हो उसने 21 से 36 बरस तक का जीवन यूंही छोटे पर्दे पर कुछ-कुछ करते हुए काट दिया हो। वह हर हफ्ते ऐसी फिल्मों को लगते-उतरते देख रहा होता होगा जिसमें अभिनय करने वाले कलाकार उससे कमतर और कई बार बहुत कमतर रहते रहें होंगे। तुलनाएं तो मन में आती ही हैं..आती ही रही होंगी...
21 से 36 बरस की उम्र ही किसी कॅरियर के पनपने की उम्र होती है। इरफान की यह पूरी जवानी बिना फिल्मों के ही गुजर गई। वह चंद्रकाता या चाणक्य तक सीमित रह गए।
90 का दशक अच्छे गाने वाली बकवास फिल्मों से भरा हुआ है। गिनती की अच्छी फिल्में इस दशक ने दी हैं। आमिर, सलमान, गोविंदा, शाहरुख, अजय, अक्षय, सैफ या संजय कोई भी ऐसा हीरो नहीं रहा है जिसने फ्लॉप फिल्मों की कतारें ना लगाई हों। जिसने फिल्मों में खराब अभिनय ना किया हो, लेकिन इरफान फिर भी खाली हाथ ही रहे।
मुंबई में छत यूं ही मयस्सर नहीं होती, ना ही मिलने के बाद बनी रहती है। इरफान को यहां बने रहने के लिए टीवी करना पड़ा। टीवी का मतलब उस समय सरकारी दूरदर्शन ही था। उस दौर के सुपरहिट चंद्रकांता सीरियल में वे बद्रीनाथ के किरदार में थे।
किस्सा है कि उन्हें उस काम के बदले पैसे नहीं मिलते थे। शायद काम देना ही पैसे देने के बराबर तौल लिया गया था। कई एपीसोड के बाद इरफान ने जब नीरजा गुलेरी से पैसों का जिक्र किया तो उन्होंने कहानी में टर्न लाते हुए उनके कैरेक्टर बद्रीनाथ को ही मरवा दिया। किस्से हैं कि वह उस किरदार की इतनी लोकप्रियता थी कि नीरजा गुलेरी के पास बद्रीनाथ के किरदार को लेकर पत्र आते। मजबूरी में उन्हें फिर से बद्रीनाथ के किरदार को उनके जुड़वा भाई सोमनाथ के रुप में फिर से जिंदा करना पड़ा। इस बार शायद कुछ पैसे भी मिले।
उपेक्षा, कुंठित करने के साथ-साथ पलायन के लिए भी प्रेरित करती है। एक समय आया जब इरफान ने मुंबई छोड़ने का फैसला किया। चवन्नी चैप ब्लॉग में छपे एक इंटरव्यू में इस बात की झलक मिलती है। इरफान मुंबई छोड़ रहे थे। मनचाहा काम भी नहीं था और पैसे भी। वो तिंग्माशु धूलिया थे जिन्होंने इरफान को रोका। इस बात की ठिठोली करके कि आए हो तो राष्ट्रीय पुरस्कार लेकर जाओ। यह सच हुआ, इरफान रुके भी और पान सिंह तोमर के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी पाया। तिग्मांशु, इरफान के सबसे करीबियों में थे। उन्हें कंधा देने वाले चार लोगों में आगे का एक कंधा तिग्मांशु का भी था।
इरफान के धैर्य की परीक्षा खत्म नहीं हुई थी। पान सिंह बन तो गई लेकिन उसे रिलीज करने के लिए डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिल रहे थे। सभी को लगता कि यह एक लोकल लैंग्वेज की फिल्म है मल्टीप्लेक्स दर्शक नकार देंगे। मुंबई के दर्शकों को यह भाषा समझ ही नहीं आएगी।
इरफान का पूरा करियर उस फिल्म के रिलीज हो जाने पर टिका था। इरफान को पता था कि उन्होंने इस फिल्म के लिए क्या किया है। फिल्म रिलीज हुई और सच मायने में इरफान को उनके स्तर की पहली फिल्म 2011 में मिली। तब इरफान की उम्र 44 पहुंच चुकी थी। 53 की उम्र में वह हमसे बिछड़ गए। मानों तेज चलती रेलगाड़ी को अचानक रोककर उन्हें उतार लिया गया हो। जहां ना तो स्टेशन था और ना ही लाल सिग्नल।
फिल्म इंडस्ट्री की इस उपेक्षा के बाद भी इरफान के मुंह से किसी भी इंटरव्यू में फिल्म इंडस्ट्री के रिवाज, रवायतें, भाई भतीजावाद या खुद की उपेक्षा पर एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला। ये इरफान का मिजाज है कि 15 साल की उस गुमनामी का साइड इफेक्ट उन्होंने अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। उन्होंने फिल्म मेकर्स को कभी इस बात का गिल्ट नहीं कराया कि उनको ना चुनकर उन्होंने कितनी बड़ी गलतियां की थीं। उन्हें इंडस्ट्री ने जब स्वीकारा तब वह उसके होकर रह गए।
माधुरी दीक्षित की तारीफ करते हुए जावेद अख्तर अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री को इस बात पर अफसोस करना चाहिए कि वह माधुरी के अभिनय हैसियत के हिसाब से उनके लिए रोल नहीं लिख पाया। जावेद को कभी इरफान के बारे में भी कहना चाहिए कि उनके या उनके किसी कुलीग्स की नजर इरफान के टैलेंट पर क्यों नहीं पड़ी...तमाम जावेदों को इस बात का अफसोस करना चाहिए....ताउम्र अफ़सोस करना चाहिए...इसके सिवा वो कर भी क्या सकते हैं।
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