सांसें जरूरी या सियासत?

आशुतोष शुक्ला, सीनियर टीवी जर्नलिस्ट
ये सच है कि, जब हम अपनों या किसी परिचित के अपनों को खोते हैं, तभी आपको कोविड की गंभीरता का अहसास ज्यादा होता है। वर्ना कोविड केस की संख्या सिर्फ एक नंबर भर है। खास तौर पर हमारे जैसे मीडियाकर्मियों के लिए, जो एक साल से रोज यही बताते और लिखते आ रहे हैं। चाहें ये संख्या लाख में हो या हजारों में। आज दोपहर पता चला कि, लंबे समय तक साथ काम करने वाले साथी सुधीर पांडेय की मां का निधन लखनऊ में कोविड से हो गया है।
हैरानी की बात है कि, इतनी सिफारिश के बाद भी जान बचाने के लिए जरूरी रेमेडिसिविर इंजेक्शन नहीं मिले और आखिरकार वो बैकुंठ धाम चलीं गईं। कई शहरों में मरीजों के तीमारदार रेमेडिसिविर इंजेक्शन के लिए भटक रहे हैं। उसकी कीमत 900 रुपए है, लेकिन कई जगह 5-5 हजार में इंजेक्शन मिल रहे हैं। जबकि, सरकार कोविड काल में मेडिकल से जुड़ीं चीजों की कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर रही है। आज लखनऊ में श्मशान में जलती चिताओं का वीडियो सामने आया है, जिसने काफी बेचैन किया।
कोविड से जान गंवाने वालों में ये दूसरी मौत थी। जिसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। पहली मौत रिश्ते में मामा लगने वाले कन्नौज के वरिष्ठ फोटोग्राफर आलोक शुक्ला की हुई थी। जिसने अंदर तक झकझोर के रख दिया था। अब डर इसलिए भी बढ़ गया है कि 14 अप्रैल को मेरी सोसायटी निराला स्टेट में 41 केस हैं। जिसमें एक केस मेरे टावर में भी है। अब बच्चों के लिए लगे झूले भी हटा दिए गए हैं। जिम बंद कर दी गई है। आज से अपने 27 महीने के बच्चे को भी पार्क में ले जाना बंद कर दिया है।

सांसों से ज्यादा हो रही सियासत
अब बात सांसों से ज्यादा सियासत की फिक्र की। आगे की बातों पर मेरा किसी पार्टी या नेता पर आरोप नहीं है। पिता के तौर पर चिंता ज्यादा है। 5 राज्यों में चुनाव के दौरान ऐसी तस्वीरें सामने आ रहीं हैं। जिन पर लोग कुछ बोलना चाहते हैं। लेकिन कई सारे कारणों से कह नहीं पा रहे। आज वही बात मैं लिखने जा रहा हूं। क्या ये ज्यादा बेहतर नहीं होता कि, पीएम मोदी कोरोना संकट को देखते हुए ऐलान करते कि, वो और उनकी पार्टी पांचों राज्यों के चुनाव में रैलियां और रोडशो नहीं करेंगे। बाकी दलों से गुजारिश है कि, वो भी सार्वजनिक प्रचार से परहेज करें। अगर पीएम की अपील बाकी दल नहीं भी मानते तो भी बीजेपी को इसका फायदा मिल सकता था।
मोदी में कुछ तो बात है, विपक्ष को सियासत के गुर उनसे सीखने चाहिए

पीएम मोदी, अमित शाह, सीएम योगी जैसे नेताओं से इसलिए भी ज्यादा अपेक्षा है कि, क्योंकि, आप सत्ता में हैं। आम लोगों में इस बात का गुस्सा है कि पीएम दिन में लाखों लोगों की भीड़ को संबोधित कर रहे हैं और फिर शाम को मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों या स्वास्थ्य मंत्रियों के साथ बातचीत में 2 गज़ की दूरी का मंत्र देते हैं। जो अच्छा नहीं लगता। कई बार तो बड़े नेता रोडशो में खुद मास्क भी लगाए नहीं दिखते। हैरानी की बात है कि, कोविड काल में रैलियां करने पर बीएसपी सुप्रीमो मायावती को छोड़कर किसी दूसरे दल ने इस बात पर ऐतराज नहीं जताया क्योंकि, कांग्रेस, टीएमसी, एसपी खुद रैलियां कर रहीं हैं, तो किस हक से सवाल उठाएं। चूंकि, मायावती लंबे समय से पब्लिक मीटिंग से दूरी बनाए हैं। इसलिए वो इस पर सवाल उठा सकीं।
'हमें बीमारी से लड़ना है, बीमार से नहीं'

इस बात का दूसरा पहलू ये है कि, पीएम मोदी, अमित शाह और सीएम योगी अपनी पार्टी के लिए 200 फीसदी आउटपुट देने का काम कर रहे हैं। वो भी अपनी जान को जोखिम में डालकर, लेकिन जब बात सार्वजनिक जिम्मेदारी की आती है तो ये रैलियां रोडशो डाइजेस्ट नहीं होते। अगर मान लिया कि 2 मई को नतीजे बीजेपी के पक्ष में भी आ गए तो क्या होगा? बंगाल में बीजेपी ने फतेह कर ली तो क्या हो जाएगा? तब तक तो हज़ारों या लाखों लोग जान गंवा चुके होंगे। इसलिए सरकार को अपनी गलती का अहसास करना चाहिए क्योंकि, गलती किसी से भी हो सकती है। जरूरी नहीं कि आप सार्वजनिक रूप से गलती मानें, लेकिन अगर आप आगे रैलियों और रोडशो को ना कहने की हिम्मत दिखाएंगे तो देश की जनता में अच्छा संदेश जाएगा। आपके लिए सम्मान में भी बढ़ोतरी होगी।
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