हर घाट पर बसता है अलग बनारस

पिछले साल 2017 की तपती दोपहरी में बनारस घूमने गया था। वहां रह रहे दोस्तों को फोन कर बताया कि बनारस में हूं, तो उनका सबसे पहला सवाल यही था कि भाई आए क्यों हो? इस सवाल ने थोड़ा असहज भी किया। भई, मई-जून की भीषण गर्मी में आमतौर पर इंसान शिमला, नैनीताल जैसी ठंडी जगहों पर जाने की सोचता है, इसलिए यह सवाल एक हद तक सही भी लगा। खैर इन बातों से आपको अभी तक यह पता नहीं चला होगा कि मैं बनारस घूमने क्यों गया था? दरअसल बनारस को करीब से देखने का हमेशा से ही मन था। यहां की प्रसिद्ध गंगा आरती, बेहतरीन खान-पान और घाटों को छूकर बहती गंगा नदी का विहंगम दृश्य देखने की चाह यहां खींच लाई थी।

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बनारस को हम काशी और वाराणसी के नाम से जानते हैं। सरकारी हिसाब से वाराणसी ही प्रचलन में है, लेकिन बनारस बोलने में जो फीलिंग मन में आती है वो सबसे खास है। इसीलिए पूरे लेख में मैं बनारस का ही जिक्र कर रहा हूं। बनारस मैं अपने दोस्त अमित मौर्या के साथ गया था, जो बेहद ही धार्मिक प्रवृत्ति वाला इंसान है। मेरे जैसे नास्तिक के साथ उसका कोई मेल नहीं था, मुझे पता था कि अमित के साथ जाने के कुछ नुकसान भी हैं, लेकिन बिना कुछ सोचे-समझे मैं और अमित देर रात लखनऊ से बनारस के लिए निकल पड़े थे। ट्विस्ट और रोमांच तो जैसे इस सफर में कूट-कूटकर भरा हुआ था। रात 11 बजे की ट्रेन का 3 बजे तक कोई अता-पता नहीं था। थक हार कर हम चारबाग रेलवे स्टेशन के बाहर लगी बस में बैठ गए। काफी जददोजहद के बाद हम बनारस पहुंच ही गए थे।
बनारस पहुंचकर कुछ देर सुस्ताने के बाद सबसे पहले यहां दशाश्वमेध घाट की भव्य आरती देखी। रात में घाट की सुंदरता निहारते-निहारते कब रात परवान चढ़ गई पता ही नहीं चला। बनारस में अपने मुताबिक घूमने के बाद हम दो दिन बाद ही वहां से लखनऊ के लिए लौट चले।

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एक साल बाद फिर पहुंचे बनारस
साल 2018 के आखिर में एक बार फिर बनारस जाने का मौका मिला। इस बार बनारस जाने का मकसद मौज-मस्ती नहीं बल्कि ऑफिस के काम से जाना था। बनारस में अपनी मर्जी के मुताबिक घूमना संभव नहीं था, इसका सबसे बड़ा कारण हमारा चुस्त शेड्यूल था। हम तड़के 3 बजे बनारस के गोदौलिया चौराहे पर पहुंच गए थे। होटल में चेकइन करते-करते सुबह के 4 बज चुके थे। थोड़ा आराम करने के बाद हम गंगा के अंचल से उगने वाले सूर्य को निहारने बगल में दशाश्वमेध घाट पर पहुंच गए थे। जहां हमने बनारस की मशहूर सुबह का आनंद लिया।

हर घाट का है अपना अलग रंग
बनारस घाटों का शहर है। यह अस्सी घाट से शुरू होकर राज घाट तक खुद में तमाम विविधता समेटे हुए है। मैं यहां पाकिस्तानी महादेव मंदिर की तलाश में पहुंचा था। इस मंदिर के अनोखे नाम और इसकी स्थापना के बारे में जानने की शुरुआत से ही उत्सुकता थी। कहीं पढ़ा था कि यह बनारस के आखिरी घाट राज घाट पर बना हुआ है। वहां पहुंचकर जब लोगों से पूछा तो कोई भी इस अनोखे मंदिर के बारे में नहीं जानता था। फिर दिमाग में आया कि यहां से पैदल दूसरे घाटों की ओर बढ़ा जाए। एक के बाद सीढ़ियों से चढ़ते उतरते मैं कई घाटों को पार करते हुए आगे बढ़ता जा रहा था। इस दौरान किसी घाट पर मुझे पतली लकड़ियों से टोकरियां बनाने का हुनर दिखाई दिया तो कहीं नावों को बनाने व मरम्मत करने का। घूमते हुए जहां हर घाट पर अलग-अलग तरह के लोग मिले साथ ही उनका काम भी अलग ही था। यहां घाटों पर तमाम समाज के लोग रहते हैं, जिनका काम भी अलग-अलग ही है। यहां कपड़ों को रंगने व मछुआरों का एक समाज भी है।
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इस बार कुछ अलग दिखा बनारस
यकीन मानिए आप बनारस जितनी बार आएंगे यहां हर बार कुछ नया देखने का मिलेगा। इस बार भी यहां सबकुछ बदला हुआ नजर आया। पहले बार की तुलना में घाटों की साफ-सफाई बढ़ी है। घाटों का सौंदर्यीकरण युद्धस्तर पर है। चूंकि घाटों पर पहले से काफी छोटे बड़े मंदिर मौजूद हैं। इसलिए सौंदर्यीकरण के लिए उन्हें जरूरत पड़ने पर तोड़ा भी जा रहा है। यहां पर्यटकों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है, जो घाटों की खूबसूरती और गंगा की भव्यता को निहारकर दंग रह जाते हैं।


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