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नवनिर्माण के ‘अटल’ पथिक
25 December 2020हरीशचंद्र श्रीवास्तव (लेखक भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के प्रवक्ता हैं।)भारत देश का सूर्य पुनः उगने का वह समय जब सन 1947 में देश को स्वतंत्रता मिली, तब 23 वर्षीय एक कवि हृदय युवा आधुनिक विराट भारत के सपने को बुनते हुए गीत गा रहा था ‘पंद्रह अगस्त का दिन कहता, आजादी अभी अधूरी है, सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है।’ यही युवा संसार में अटल बिहारी बाजपेयी के रूप में विख्यात हुआ। यही वह समय था, जब सत्ताशीर्ष पर बैठे एक व्यक्ति के मनमौजीपन व नासमझी के कारण देश के एक महत्वपूर्ण भाग कश्मीर के एक भाग शत्रु देशों के हाथ में जाने, संसदीय परंपराओं के साथ छल करके शेष कश्मीर में अलगाववादी धारा 370, 35-ए थोपने, विकास नीति के स्थान पर परिवारवाद की नीति को शासनतंत्र का भाग बनाने का पाप करने आदि अनेक पच्छगामी घटनाएं हो रही थीं, तब इस युवक के ये शब्द ‘आग्नेय की इस घड़ी में आइये अर्जुन के जैसे उद्घोष करें, ‘न दैन्यं न पलायनम्’, जनता में आशा का संचार कर रहे थे।
मोदी में कुछ तो बात है, विपक्ष को सियासत के गुर उनसे सीखने चाहिए
19 September 2020आशुतोष शुक्ला, सीनियर प्रोड्यूसर, न्यूज़ 18मेरी इस पोस्ट को सियासी चश्मे से ना पढ़ें। पक्ष या विपक्ष छोड़िए, बात से सहमत हों तो ठीक, नहीं होंगे तो असहमति जताने के लिए आप स्वतंत्र हैं। सबसे पहले पीएम मोदी को जन्मदिन की बधाई।. यही कामना है कि, आपके विज़न में जो काम अभी प्रॉसेस में हैं, उन्हें आप जल्द से जल्द पूरा कर सकें। इस लाइन को पढ़कर मुझे भक्त करार देने की जल्दबाजी ना करें। काम की बात अब शुरू होने जा रही है। ये तो भूमिका थी।
‘आर’नाम की लूट है, लूट सके तो लूट
06 August 2020आनंद श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकारआरके यानी राज कपूर के निर्देशन में साल 1985 में एक फिल्म आई थी, ‘राम तेरी गंगा मैली’। मंदाकिनी और राजीव कपूर अभिनीत इस फिल्म के वैसे तो सभी गाने हिट हुए थे, पर रवींद्र जैन के संगीत निर्देशन में रिकार्ड हुआ गाना...’सुन साहिबा सुन, प्यार की धुन’ की बात ही कुछ और थी। पैंतीस बरस बाद, एक बार फिर ‘आर’ की बहार है। माफ कीजिएगा हिंदी के ‘र’ की जगह हम अंग्रेजी के ‘R’ का सहारा ले रहे हैं। इस बार बस कलेवर थोड़ा बदला हुआ है, सो अबकी बार..’सुन साहिबा सुन, ‘आर’ की धुन’।अब ‘आर’ बोले तो राम मंदिर, राफेल, रिया चक्रवर्ती......। नित नई ज्ञान गंगा बहाने वाले अपने ....बाबा तो हैं ही। आप तय कीजिए कि बाबा को आरडी मानेंगे या आरजी। अब आरडी और आरजी का मतलब समझाने की जिद ना कीजिएगा। कुल मिलाकर यह कि, जहां भी नजर घुमाइये, ‘आर’ की बयार है। सच कहें तो कई बार ‘आर’ , कोविड-19 पर भी भारी नजर आता है। कम से कम अपने देश में तो ऐसा ही है। यह सिर्फ हम नहीं कह रहे, खबरिया चैनलों की कवरेज भी इस बात की तसदीक करती है।
'हमें बीमारी से लड़ना है, बीमार से नहीं'
25 July 2020पूरी दुनिया के लोग कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं। हर दिन इससे संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। हर जगह दहशत का माहौल है। लेकिन इस बीच एक बड़ी अजीब चीज मैंने महसूस की है। यहां लोग कोरोना पॉजिटिव व्यक्ति को बड़ी अजीब तरह से देखते हैं, ऐसा लगता है जैसे उसने कोई गुनाह-ए-अजीम कर दिया हो। मीडिया में ऐसे कई लोगों के बारे में रिपोर्ट्स आईं जो अपने घर से सिर्फ जरूरी सामान की खरीदारी के लिए निकलते थे और इससे बचाव के सारे नियमों का पालन भी करते थे, फिर भी कोरोना ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया। इसके बावजूद ज्यादातर लोगों में इसे लेकर बेहद लापरवाही है। वे किसी कोरोना पॉजिटव व्यक्ति को भले ही हिकारत की नजरों से देखते हों लेकिन खुद को और अपने परिवार को इससे बचाने के लिए कुछ नहीं करेंगे।
‘कयामत से कयामत तक-2’
10 July 2020आनंद पी श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकारसाल 1988 में एक फिल्म आई थी, कयामत से कयामत तक। इंडिया और काफी हद तक साउथ एशिया में, टीनएजर्स और यंगस्टर्स के बीच इस सुपरहिट फिल्म ने 'क्यूएसक्यूटी' के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई। इस फिल्म का एक गाना सुपरहिट हुआ था... अकेले हैं, तो क्या गम है, चाहें तो हमारे बस में क्या नहीं...। आज नौजवान होती पीढ़ी को शायद यह पता ना हो कि मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत को आवाज दी थी अलका अलका याग्निक और उदित नारायन ने। घरों, सड़कों, गलियों, चाक-चौबारों में या फिर स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में हर किसी की जुबान पर यह गाना चढ़ा और खूब चढ़ा, लेकिन तब यह शायद किसी को नहीं पता था कि उतरेगा कब। फोर्टीज और फिफ्टीज की हो रही उस पीढ़ी के लोगों के कान में आज भी यह गाना पड़ जाता है तो, उन्हें गुनगुनाते देखा/सुना जा सकता है।
बॉलीवुड, नेपोटिज्म, सुशांत सिंह, कंगना रनौत और आप
16 June 2020बीते दिनों हिंदुस्तान के तीन बड़े फिल्मी सितारों एक्टर इरफान खान (irfan khan), ऋषि कपूर (rishi kapoor), संगीतकार वाजिद खान (wajid khan) की मौत हो गई, लोग अभी इस घटना को भुला ही नहीं पाये थे कि अचानक एक्टर सुशांत सिंह राजपूत (sushant singh rajpoot) की आत्महत्या ने सबको हिलाकर रख दिया। अपनी प्यारी सी मुस्कान के साथ हर किसी का दिल लूट लेने वाले सुशांत सिंह (sushant singh) का ऐसा करना हर किसी को अब ये सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर सुशांत ने आत्महत्या की क्यों?इस सवाल का जवाब अभी उनके चाहने वाले अपने मन में ढूंढ ही रहे थे कि अचानक बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत (kangna ranaut) ने सुशांत की मौत का कारण 'नेपोटिज्म' (nepotism) बता दिया, जिसके बाद से सुशांत के चाहने वालों ने ट्वीटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर सुशांत की मौत के जिम्मेदार लोगों को सजा देने और उनके बॉयकॉट की गुहार लगाने लगे।
अभिनेता तो नहीं, क्या हम इरफान जैसे इंसान भी बन सकते हैं?
01 May 2020रोहित मिश्र, पत्रकार, फिल्म समीक्षक हम-आप जैसे लाखों मिडियोकर लोग अपने सिस्टम में खुद की 6 दिन या 6 हफ्ते की उपेक्षा भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। खुद की उपेक्षा करने वाले उस सिस्टम को लेकर एक टॉक्सिक हमारे मन में पलने लगता है। ये तेजाब सिस्टम का कुछ बिगाड़ या संवार तो नहीं पाता लेकिन यह हमें खुद ही गलाने लगता है। दिमाग और पर्सनाल्टी दोनों स्तरों पर। उपेक्षा की कुंठा बहुत हद तक प्रतिभा का गला घोट देती है।अब आइए इरफान की जिंदगी को देखें। एक कलाकार के रुप में उसे अभिनय करते हुए नहीं बल्कि एक व्यक्ति के रुप में। देखें उसके धैर्य को और अपने प्रोफेशन को लेकर उसकी प्रतिबद्धता और अदब को।
पर्दे पर हर रंग को जी गए ‘चिंटू’
30 April 2020इरफान खान के जाने पर रात तक जैसे-तैसे यकीन कर ही पाया था कि आज सुबह आंख खोलने के बाद जैसे ही फोन चेक किया तो पहला मैसेज था ‘ऋषि कपूर इज नो मोर’। यकीन नहीं हुआ तो आंखें साफ कर दोबारा देखा। किसी दिन की ऐसी मनहूस शुरुआत सोच भी नहीं सकता। जेहन में ऋषि कपूर के ढेरों गाने बजने लगे। दिलफरेब मुस्कान वाला चेहरा आंखों के सामने से हट ही नहीं रहा है।मुझे फिल्में देखने का बेहद शौक है। अपने होश संभालने से आज तक ऋषि कपूर की शायद ही कोई मूवी होगी जो मैंने न देखी हो। मुझे लगता है वह हमेशा अपनी पीढ़ी के सफलतम अभिनेताओं की श्रेणी में सबसे आगे की पंक्ति में शामिल रहे। टीवी पर उनकी फिल्मों को देखता था तो उनकी जगह खुद को रखकर जाने क्या-क्या ख्वाब बुनने लगता था।उनकी आकर्षक पर्सनालिटी को देखकर सोचता था कि काश मैं भी उनकी तरह दिखता। आप खुद सोचिए कि जितनी खूबसूरत जोड़ी ‘बॉबी’ में डिंपल कपाड़िया के साथ थी वही बात ‘बोल राधा बोल’ में जूही चावला और ‘दीवाना’ में दिव्या भारती के साथ थी।
बहुत याद आओगे मेरे वियोगी ‘इरफान’
29 April 2020ऐसे कौन जाता है मियां। ये किसी को मकबूल न होगा। अभी चंद रोज पहले ही तो हमने फैसला किया था कि अब रोएंगे नहीं। तुम रुला गए। ऐसे कौन करता है मियां। जब लगा था कि अब हंस नहीं पाएंगे, महसूस नहीं पाएंगे प्यार के अहसासों को…तब भी तुमने अपने मन का किया था। तब तुम वियोगी जी बनकर घुसे चले आए थे जबरदस्ती हमारी जिंदगी में। हम अकेले, तन्हा लोगों का कारवां छोड़कर तुम्हें क्या हासिल हुआ मियां इरफान खान। तुम तो भज लिए, हम कहां भज पाएंगे तुम्हारी तरह। तुम बड़े बेवफा निकले, इरफान!
कोरोना की महिलाओं पर दोहरी मार: ये समय साथ निभाने का है, बोझ बढ़ाने का नहीं
22 April 2020कोरोना (Corona) से संक्रमित होने वालों में महिलाओं से ज्यादा भले पुरूषों की संख्या है लेकिन इस बीमारी का कहर महिलाओं पर दोहरा पड़ा है। इसकी शुरुआत तभी से हो गई थी जब ये बीमारी महामारी बनी और पूरे देश को लॉकडाउन (lockdown) करने का आदेश आ गया। लॉकडाउन (lockdown) के बाद पति व बच्चों के पूरे दिन घर पर रहने का जहां एक ओर फायदा हुआ वहीं दूसरी ओर महिलाओं पर काम का बोझ भी बढ़ा। बीते दिनों मेरी जिन भी घरेलू महिलाओं (housewife) से बात हुई है उनका सिर्फ एक ही कॉमन सवाल था कि ये लॉकडाउन कब खुलेगा। पहले भी ये महिलाओं का ज्यादातर समय घर के कामकाज में ही बीतता था, न ही कोई रोज का सैर-सपाटा करती थीं जो अब घर से बाहर न जाने का दुख हो। लेकिन अब इनकी चिंता रोजाना घर से बाहर जाने वाले पुरूषों से भी ज्यादा क्यों है? इस सवाल का जवाब शायद आपको अपने घरों में ही ढूंढने पर मिल जाएगा। आपके लिए भले ही ये दिन घर पर कुछ दिन आराम के बिताने के हों लेकिन इन घरेलू महिलाओं की दिनचर्या आज भी वही है। हां काम में भले इजाफा हुआ है क्योंकि अब 24 घंटा घर में रहने वाले पति और बच्चों की नई फरमाइशों का बोझ भी अकेले इनके कंधे पर ही आ गया है। नौकरीपेशा (Working women) महिलाओं का हाल अगर इस समय पूछ लें तो शायद उनकी परेशानियां आपको घंटों सुननी पड़ें। अब उनको एक ओर वर्क फार्म होम (work from home) में घर से काम करना पड़ रहा और दूसरी ओर घर का भी सारा काम उनके ही जिम्मे है क्योंकि औरत के घर में होने के बावजूद भारतीय पुरूष अगर काम करने लगे तो नाक नींची होने की पूरी संभावना होती है। ये स्थिति तनाव और डिप्रेशन (Depression) की है और हमेशा की तरह इसपर किसी का ध्यान भी नहीं जाएगा।